SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६१ Vol. III-1997-2002 श्रीप्रकाश पाण्डेय स्वामिकृत और विषयकृत इन चार भेदों का उल्लेख किया है । (१) विशुद्धिकृत - विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है । अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान की विशुद्धि या निर्मलता अधिक होती है क्योंकि वह अपने विषय को अवधिज्ञान से अधिक विशद रूप में जानता है । (२) क्षेत्रकृत - दोनों में क्षेत्रकृत विशेषता यह है कि अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्त है । जबकि मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्य लोक प्रमाण है, वह उतने क्षेत्र के भीतर ही संज्ञी जीवों की मनोगत पर्यायों को जानता है । (३) स्वामीकृत-अवधिज्ञान संयमी साधु, असंयमी जीव तथा संयतासंयत श्रावक इन सभी को हो सकता है तथा चारों ही गतिवाले जीवों को हो सकता है; जबकि मनःपर्ययज्ञान प्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान तक के उत्कृष्ट चारित्र से युक्त जीवों में ही पाया जाता है ।। (४) विषयकृत-ज्ञान द्वारा जो पदार्थ जाना जाय उसे ज्ञेय अथवा विषय कहते हैं । विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान, रूपी द्रव्यों एवं उसकी असम्पूर्ण पर्यायों को जानता है परंतु अवधि के विषय का अनन्तवाँ भाग मनःपर्यय का विषय है। अतः अवधि की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान का विषय अति सूक्ष्म है । [३] केवलज्ञान : केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी सभी पर्यायें है । जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सभी द्रव्यों की पृथक्-पृथक् तीनों कालों में होनेवाली अनंतान्त पर्यायें हैं । अतः जो ज्ञान इन सबको जानता है वह केवलज्ञान है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशिष्ट तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सभी पदार्थों को ग्रहण करता है और सम्पूर्ण लोक-अलोक को विषय करता है । इससे उत्कृष्ट और कोई भी ज्ञान नहीं है और न ही कोई ऐसा ज्ञेय है जो केवलज्ञान का विषय न हो । इसे केवल, परिपूर्ण, समग्र, असाधारण, निरपेक्ष, विशुद्ध, सर्वभावज्ञापक लोकालोक विषय और अनन्तपर्यायज्ञान भी कहते हैं । यह अपनी तरह का अकेला ज्ञान है इसलिए इसे केवल ज्ञान कहते हैं । सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक-प्रत्यक्ष :- उमास्वाति ने प्रत्यक्ष के अन्दर अवधि, मनःपर्यय एवं केवल इन तीन आत्मसापेक्ष एवं इन्द्रिय-अनिन्द्रिय की सहायता के बिना होनेवाले ज्ञानों को ही लिया है । बाद में जब आगमिक विचार प्रक्रिया में तार्किकता का प्रवेश हुआ तो ऐसा महसूस किया जाने लगा कि लोकव्यवहार में प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष की समस्या के समन्वय हेतु इन्हें भी प्रत्यक्ष में शामिल किया जाना चाहिए । नन्दीसूत्रकार ने सम्भवतः सबसे पहले इन दोनों जानों को प्रत्यक्ष में शामिल कर प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष नामक दो विभाग किये । इसके बाद जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपने विस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पंचज्ञान विभाग (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल) का तर्कपुरस्सर समावेश किया और अनुयोगद्वारकर्ता एवं नन्दीकार द्वारा स्वीकृत इन्द्रियजन्य एवं नोइन्द्रियजन्यरूप से द्विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में आने वाले उसे विरोध का परिहार सांव्यवहारिक एवं पारमार्थिक प्रत्यक्ष ऐसे दो नाम देकर सर्वप्रथम करने का प्रयास किया, जिसे भट्ट अकलंक ६, हेमचन्द्राचार्य आदि परवर्ती विद्वानों ने भी अपनी प्रमाण मीमांसा में स्थान दिया । इन दोनों प्रत्यक्षों का संक्षिप्त परिचय यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा । (१) सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - बाधारहित प्रवृत्ति-निवृत्ति और लोगों का बोलचाल रूप व्यवहार, संव्यवहार कहलाता है । इस संव्यवहार के लिए जो प्रत्यक्ष माना जाय वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । यह अपारमार्थिक प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रियों एवं मन की सहायता से उत्पन्न होता है । यह दो प्रकार का है - (१) इन्द्रियज (२) अनिन्द्रियज"। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy