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Vol. III-1997-2002
श्रीप्रकाश पाण्डेय
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को बौद्धों का उक्त निर्विकल्पक या कल्पनापोढ प्रत्यक्ष लक्षण मान्य नहीं है । भट्ट अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्राचार्य तथा अभिनवभूषण ने बौद्धों के उक्त प्रत्यक्ष का खण्डन किया है । कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है, तो प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्षकल्पनापोढ है, इत्यादि कल्पनायें भी उसमें नहीं की जा सकेंगी और इस प्रकार उसके अस्तित्व आदि की कल्पना भी नहीं की जा सकेगी । उसका 'अस्ति' इस प्रकार से भी सद्भाव सिद्ध नहीं होगा एवं यदि उसमें इन कल्पनाओं का सद्भाव माना जाता है तो वह स्ववचन व्याघात है ।
अतः जैन दार्शनिक सविकल्पक ज्ञान को ही प्रमाण मानकर विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष की कोटि में रखते हैं। विशदता और निश्चयता विकल्प का अपना धर्म है और वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार इसमें पाया जाता है । अतः जिन विकल्पज्ञानों का विषयभूत पदार्थ बाह्य में नहि मिलता वे विकल्पाभास हैं, प्रत्यक्ष नहीं । माणिक्यनन्दी, बादिदेवसूरि तथा हेमचंद्रन ने प्रत्यक्ष को क्रमशः निम्नप्रकार से परिभाषित किया है।
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(क) विशदं प्रत्यक्षमिति
(ख) स्पष्टं प्रत्यक्षं
(ग) विशदः प्रत्यक्षं
माणिक्यनन्दी विशद की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि
"प्रतीत्यन्नराव्यवधानेन विशेषोक्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यमिति” अर्थात् वह ज्ञान जो अन्य ज्ञान के व्यवधान से रहित होता है तथा जो विशेषणों के साथ प्रतिभासित होता है, उसे वैशद्य कहते हैं। हेमचंद्राचार्य के अनुसार जिसका प्रतिभासन बिना किसी अन्य प्रमाण के होता है या यह 'इदन्तया' प्रतिभासित होता है, उसे वैशद्य कहते हैं ' प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् ५० प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं होने का कथन माणिक्यनन्दी एवं प्रभाचन्द्र का अनुसरण प्रतीत होता है । किन्तु इदन्तया प्रतिभास प्रत्यक्ष में ही होता है, अनुमानादि में नहीं । अतः विशदता की यह नयी विशेषता कही जा सकती है। प्रश्न उठता है कि जैन दर्शन में इन्द्रिय व्यापार से जनित ज्ञान को अन्य भारतीय दार्शनिकों की भाँति प्रत्यक्ष एवं इन्द्रिय व्यापार से रहित ज्ञान को परोक्ष क्यों नहीं कहा गया ? पूज्यपाद ने जैन ज्ञानमीमांसा के आधार पर इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जैन दर्शन में सर्वज्ञ आप्तपुरुष प्रत्यक्ष-ज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों को जानता है। यदि सर्वज्ञ का प्रत्यक्ष इन्द्रिय के निमित्त से हो तो सर्वज्ञ समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष पूर्वक नहीं जान सकेगा, किन्तु आप्तपुरुष सर्वश है तथा वह समस्त पदार्थों का प्रतिक्षण प्रत्यक्ष करता है। उसकी यह प्रत्यक्षता तभी सिद्ध हो सकती है, जब वह मात्र आत्मा द्वारा समस्त अर्थों को जानता हो अ | पूज्यपाद के समाधान को अकलंक ने भी पुष्ट किया है । ५०
अब प्रश्न उठता है कि इन्द्रियादि के बिना आत्मा को बाह्यार्थों का प्रत्यक्ष किस प्रकार होता है ? अकलंक ने इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिस प्रकार रथ का निर्माता तपोविशेष के प्रभाव से ऋद्धिविशेष प्राप्त करके बाह्य उपकरणादि के बिना भी रथ का निर्माण करने में सक्षम होता है, उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष अथवा पूर्णक्षय से इन्द्रियादि बाह्य साधनों के बिना ही बाह्यार्थों को जानने में सक्षम होता है । ५० क इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण का मुख्य लक्षण 'आत्मसापेक्ष एवं विशद या स्पष्ट ज्ञान' ही जैन परम्परा में मान्य है ।
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प्रत्यक्ष के प्रकार :
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उमास्वाति ने प्रत्यक्ष प्रमाण में अवधि, मन:पर्यय एवं केवल इन तीन ज्ञानों का ही समावेश किया है और इन्हीं की व्याख्या प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में की है। 'अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा मान लेने
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