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________________ Vol. II- 1997-2002 श्रीप्रकाश पाण्डेय २५५ प्रमाण के प्रकार प्राचीन काल से ही प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद निर्विवाद रूप से चले आ रहे हैं । यदि हम प्रमाणभेद की चर्चा को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखें तो आगमिक साहित्य में स्थानांग और व्याख्याप्रज्ञप्ति में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो प्रमाणों का उल्लेख मिलता है, जिनमें इन दो मुख्य प्रमाणों के अन्तर्गत ही पंचज्ञानों की योजना की गई है । परंतु साथ ही इनमें चार प्रमाणों का भी उल्लेख मिलता है।५ । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमाणों के ये दो भेद इन दोनों ग्रन्थों में नियुक्तिकार भद्रबाहु के बाद ही दाखिल हुए होंगे क्योंकि आवश्यकनियुक्ति, जो भद्रबाहुकृत मानी जाती है और जिसका आरंभ ही ज्ञान चर्चा से होता है, उसमें मति, श्रुत आदि विभाग से ज्ञान चर्चा तो है परंतु प्रत्यक्षादि प्रमाणभेद की चर्चा का सूचन तक नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि नियुक्ति के समय तक जैनाचार्य ज्ञानचर्चा करते तो थे पंचज्ञान के ही रूप में, किन्तु अन्य दर्शनों में प्रतिष्ठित प्रमाण चर्चा से पूर्णतः अनभिज्ञ भी नहीं थे । इसका प्रमाण हमें उसी भद्रबाहुकृत दशवैकालिकनियुक्ति में मिल जाता है जिसमें परार्थानुमान की चर्चा की गई है, यद्यपि वह अवयवांश में अन्य दर्शनों की परार्थानुमान शैली से अनोखी है । सम्भवतः सबसे पहले अनुयोगद्वार में न्याय सम्मत प्रत्यक्ष अनुमानादि चार प्रमाणों को दाखिल किया गया। इसके पूर्व तो जैनाचार्यों की मुख्यविचार दिशा प्रमाणद्वय विभाग की ओर ही रही है । इसी परम्परा के अनुसार आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो प्रमाणों की ही चर्चा की है और प्रमाणचतुष्टय विभाग, जो मूलतः न्यायदर्शन" का है, को 'नयवादान्तरेण' कहकर प्रमाणद्वय विभाग को ही जैन परम्परा सम्मत माना है । उन्होंने इन दो प्रमाणों में ही दर्शनान्तरीय अन्य प्रमाणों को भी अन्तर्भूत माना है । भारतीय दर्शन के अन्य दार्शनिक निकायों में चार्वाक एक मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । बौद्ध और वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं । सांख्यदर्शन प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणों को मानता है । नैयायिक सांख्य के तीन भेदों में उपमान को जोड़कर चार भेद स्वीकार करते हैं । मीमांसकों में प्रभाकरानुयायी चार भेदों में अर्थापत्ति को जोड़कर पाँच एवं कुमारिल भट्टानुयायी और वेदान्ती प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि के छ: प्रमाण मानते हैं । पौराणिक लोग ‘सम्भव' और 'ऐतिह्य' को मिलाकर आठ एवं तांत्रिक इसमें 'चेष्टा' नामक एक प्रमाण जोड़कर नौ प्रमाणों को स्वीकार करते हैं । उमास्वाति ने इन सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव जैन दर्शन के प्रत्यक्ष व परोक्ष इन दो प्रमाणों में ही माना है । परोक्ष :- आचार्य उमास्वाति ने मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानों में 'आद्येपरोक्षम्'३३ कहकर आदि के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना है । इनको परोक्ष प्रमाण क्यों कहते हैं ? इसके उत्तर में उनका कहना है कि ये दोनों ही ज्ञान निमित्त की अपेक्षा रखते हैं इसलिए ये परोक्ष हैं । परोक्ष ज्ञान में इन्द्रिय और मन इन दोनों को निमित्त माना गया है । प्रत्यक्ष :- 'प्रत्यक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति दो शब्दों से मिलकर हुई है - प्रति + अक्ष = प्रत्यक्ष । 'अक्ष' शब्द की व्युत्पत्ति 'अश्' धातु से होती है जिसका अर्थ व्याप्त होना है । इस प्रकार "अश्नुते व्याप्नोति विषयान् स्ववृत्त्या संयोगेन वा अक्ष" पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ है जो ज्ञान रूप से सभी वस्तुओं में व्याप्त या विद्यमान होता है अर्थात् जीव । 'अश्' धातु से भी 'अक्ष' शब्द की उत्पत्ति संभव है । 'अश्' का अर्थ है भोजन करना । चूंकि जीव सभी पदार्थों का भोक्ता है इसलिए इस व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुसार भी 'अक्ष' का अर्थ आत्मा ही हुआ । 'अक्ष' शब्द का अर्थ इन्द्रिय भी किया जाता है । न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष की जो परिभाषा दी गयी है, उसमें प्रयुक्त 'अक्ष' शब्द इन्द्रिय अर्थ का ही द्योतक है- “अक्षस्याऽक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् ।" यहाँ 'अक्ष' Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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