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________________ ५० मधुसूदन ढांकी Nirgrantha नियमानुसार 'ग्रासपट्टी' बनाई गई है। किन्तु 'भद्र'भाग पर रूपकाम अवश्य किया गया है। यहाँ प्रत्येक भद्र पर परिकर्म युक्त 'खतक' में प्रातिहार्य समेत पद्मासनस्थ जिन प्रतिमा बनाई गई है (चित्र १,४,५,९) । जंघा के ऊपर 'भरणी', 'कपोतपाली' (केवाल), बाद 'अन्तरपट्ट' और 'खुरच्छद्य' (छज्जा) आता है । छज्जे के ऊपर प्रहाररूपी आसन करके तदुपरि 'लतिन शिखर' का उदय किया गया है । शिखर की नवभूमियुक्त एवं पद्मकोश समान रेखा जितनी सुन्दर है इतनी ही 'प्रतिरथ' और 'भद्र' पर की जालक्रिया कमनीय है । शिखर के पुराने स्कन्ध पर जबर्दस्ती से एक आधुनिक 'मोइलापट्टी युक्त स्कन्ध' थोप दिया गया है, जो ग्रीवा की खूबसूरती का हनन करता है। ग्रीवा के ऊपर 'आमलसारक' और 'चन्द्रिका' विराजमान हैं; किन्तु ऊपर आनेवाली आमलसारिका कृत्रिम है, तदुपरि आया हुआ कलश आधुनिक है, तथा आधुनिक समय का कलाबायुक्त ध्वजदण्ड भी समीचीन ढंग से नहीं रचा गया है। प्रासाद और गूढमण्डप को जोड़ने वाली क्षीण कपिली के ऊपर दो उतार-चढाव युक्त सिंहकर्णवाली शुकनास बनायी गई है। शुकनास के अगल-बगल रथिका में सुरसुन्दरी (या देवी) की मूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती है। गूढमण्डप का पूरा उदय (चित्र ६, ८) प्रासाद के समान ही है, अलबत्ता इसका विष्कम्भ अधिक होने के कारण प्रासाद के अङ्गोपाङ्ग से उसका अङ्गोपाङ्ग थोड़ा सा और विस्तृत है (चित्र ३) । गूढमण्डप पर, गुजरात के मन्दिरों में कम दृष्टान्तों में बची हुई ही नहीं बल्कि घाटमानादि की दृष्टि से भी अतीव सुन्दर, संवरणा दिखाई देती है (चित्र १०-१२) । संवरणा की रचना १२ 'उर:घण्टा', चार 'पञ्चघण्टा' रूपी'कर्णघण्टा' और अनेक घंटिकाओं एवं उपघंटाओं से शोभायमान हो गई है (चित्र १२) । संवरणा के भद्रों पर नियमानुसार विस्तृत रथिका के अंतर्गत देवमूर्तियाँ और परिचर स्त्री-पुरुषों की प्रतिमाएँ नजर आती है। छचौकी में आते ही प्रतीत हो जाता है की/ जीर्णोद्धार से वह बिगड़ चुकी है। यही हाल मन्दिर एवं गर्भगृह की द्वारशाखाओं का भी हुआ है। गूढमण्डप के अन्दर 'सभामार्ग' जाति का गजतालु और कोल से निर्मित करोटक उपस्थित है (चित्र १३) । यह मन्दिर कब बना होगा ? जाड्यकुंभ और कुंभ पर के अर्धरत्न की शैली ११वीं शताब्दी सूचित करती है । ठीक यही बात शिखर की जालक्रिया और संवरणा की सुघटित रचना एवं घण्टाओं के मानप्रमाण से पुष्ट होती है । ई० १०२५ में गजना के सुल्तान महमूदका गुजरात पर किया गया आक्रमण से संभवत: थोड़े वर्ष ही पूर्व यदि यह जिनालय बन गया हो तो इसका समय १०१५ से १०२५ के बीच में मान सकते हैं । मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप ११वीं शती के अनेक देवमंदिरों नष्ट हो चुके हैं । इस दशा में यह मन्दिर छोटा होते हुए भी, प्राचीन एवं विरल होने से, स्वयमेव बहुमूल्य बन जाता है। मन्दिर के कारापक और उनका सम्प्रदाय के बारे में प्रमाणाभाव में कुछ भी नहीं कह सकते । यदि बनानेवाले मूलसंघ आम्नाय के रहे हो तो मंदिर दिगम्बर सम्प्रदाय का होने में किसी भी प्रकार की संशयस्थिति नहीं रहेगी। यदि वह माथुर / काष्ठा संघवालोंने विनिर्मित किया होगा तो वह अचेल / क्षपणक (जिसको श्वेताम्बर 'बोटिक' नाम से पहचानते थे) मूलतः उसका वह रहा होगा । (लेख के संग संलग्न मानचित्र एवं सभी तस्वीरें American Institute of Indian Studies, Varanasi के सौजन्य और सहाय से प्रकट किया गया है ।) Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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