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________________ Vol. II - 1996 वायडगच्छ का इतिहास राजोरगढ़, राजस्थान) के दिगम्बर आचार्य श्रुतकीति से दीक्षा लेकर सुवर्णकीति नाम प्राप्त किया। आगे चलकर सुवर्णकीर्ति ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अपनी आस्था व्यस्त की और अपने संसारपक्षीय भ्राता राशिल्लसूरि के पास दीक्षित हो कर जीवदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । निम्बा द्वारा कराये गये जीर्णोद्धार से पूर्व भी उक्त जिनालय जीवदेवसूरि के अधिकार में था । प्रभावकचरित के इसी चरित में आगे लल्ल नामक एक ब्राह्मण धर्मानुयायी श्रेष्ठी का विवरण है जिसने यज्ञ में होनेवाली हिंसा को देखकर जैन धर्म स्वीकार किया और महावीर का एक मन्दिर बनवाया । इससे नाराज ब्राह्मणों ने वहाँ द्वेषवश रात्रि में एक मृत गाय रख दिया, किन्तु जीवदेवसूरि की चमत्कारिक शक्ति से वह गाय उठी और निकटस्थित ब्रह्मा के मन्दिर में जाकर गिर पड़ी। बाद में दोनों पक्षों में हुए समझौते की शर्तों से स्पष्ट होता है कि इस गच्छ के अनुयायी मुनिजन चैत्यवासी परम्परा से संबद्ध थे। अमरचन्द्रसूरि कृत पद्मानंदमहाकाव्य (वि. सं. १२९७ के पूर्व) की प्रशस्ति८ में भी कुछ परिवर्तन के साथ उक्त कथानक प्राप्त होता है । वहाँ ब्रह्मा का मंदिर न कहके ब्रह्मशाला कहा गया है । उन्होंने इस गच्छ के प्रारम्भिक आचार्यों का जो क्रम बतलाया है वह प्रभावकचरित में भी मिलता है। अमरचन्द्रसूरि ने इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बात यह बतलायी है कि वायडगच्छ में पट्टधरआचार्यों को जिनदत्तसूरि, राशिल्लसरि और जीवदेवसूरि-ये तीन नाम पुनः पुनः प्राप्त होते है । जब कि यह नियम अमरचन्द्रसूरि के बारे में नहीं लागू हुआ । यद्यपि उनके तीन पूर्ववर्ती आचार्यों का क्रम वैसा ही रहा जैसा कि उन्होंने बतलाया है । अमरचन्द्रसूरि के गुरु का नाम जिनदत्तसूरि था । जिनदत्तसूरि के गुरु का नाम जीवदेवसूरि और प्रगुरु का नाम राशिल्लसूरि था । जिनदत्तसूरि वि. सं. १२६५ / ई. स. १२०९ में गच्छनायक बनें२९ । अरिसिंह द्वारा रचित सुकृतसंकीर्तन२२ (वि. सं. १२८७ / ई. स. १२३१ लगभग) के अनुसार इन्होंने ई. स. १२३० में मंत्री वस्तुपाल के संघ में शत्रुजय और गिरनार की यात्रा की थी२३ । विवेकविलास की संक्षिप्त प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं को जीवदेवसूरि और उनके गुरु राशिल्लसूरि की परम्पराका बतलाया है। __यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इस गच्छ के प्रारंभिक आचार्यों का भी नाम और पट्टक्रम ठीक उसी प्रकार का रहा जैसा कि १२-१३वीं शती में हम देखते हैं । वस्तुतः यह जीवदेवसूरि 'प्रथम' की ऐतिहासिकता और उनसे सम्बन्धित विभिन्न कथानकों का विकास १३वीं शताब्दी में श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उस महान् आचार्य के प्रति व्यक्त श्रद्धा और सम्मान का परिणाम माना जा सकता है। १३वीं शताब्दी के पूर्व भी श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने इनका अत्यन्त सम्मान के साथ उल्लेख किया है । हर्षपुरीयगच्छ के लक्ष्मणगणि ने प्राकृतभाषा में रचित सुपासनाहचरिय (सुपार्श्वनाथचरित, रचनाकाल ई. स. ११३७) में अत्यन्त आदर के साथ इनके साहित्यिक क्रियाकलापों का वर्णन किया है५ । उपाध्याय चन्द्रप्रभ द्वारा प्रणीत वासुपूज्यचरित की प्रशस्ति में सस्नेह इनका उल्लेख है६ । परमारनरेश भोज (ई. स. के दरबारी कवि धनपाल ने भी अपनी अमर कृति तिलकमंजरी (प्रायः ई. स. १०२०-२५) में जीवदेवसूरि का अन्य प्रसिद्ध कवियों के साथ सादर स्मरण किया है । इनसे भी पूर्व चन्द्रगच्छीय गोग्गटाचार्य के शिष्य समुद्रसूरि (प्रायः वि. सं. १००६ / ई. स. ९५०) ने जीवदेवसूरि द्वारा प्रणीत जिनस्नाात्रविधि पर टिप्पण की रचना की है। वि. सं. १२९८ में महामात्य वस्तुपाल द्वारा शत्रुजय महातीर्थ पर उत्कीर्ण कराये गये शिलालेख में अन्य गच्छों के आचार्यों के साथ वायडगच्छीय जीवदेवसूरि का भी नाम मिलता है । उक्त साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के आचार्यों के गुरु-परम्परा की एक तालिका निर्मित की जा सकती है, जो इस प्रकार है : Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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