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Vol. II - 1996
कारणवाद भी आप ऐसा कैसे कहते हैं कि स्वभाव से ही वस्तु की उत्पत्ति होती है ।
उक्त शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि ऐसी बात नहीं है क्योंकि वस्तु की पहले अभिव्यक्ति नहीं होने से ही वस्तु की उत्पत्ति का बोध नहीं होता और आँख का भी स्वभाव है कि वह अतिसूक्ष्मादि पदार्थो को देख नहीं पाती । यथा अंजन और मेरुपर्वत उसी प्रकार पहले अव्यक्त होने के कारण, घटादि की उपस्थिति का बोध नहीं होता है और घट का भी उसी प्रकार का स्वभाव है.५ । अर्थात अंजन के होने पर भी अतिसामीप्य के कारण तथा मेरुपर्वत विद्यमान होते हुए भी अतिदूरी के कारण अव्यक्त है। उसी प्रकार घट आदि वस्तुओं की उपस्थिति होने पर भी बोध नहीं होने में वस्तु का अभाव नहीं किन्तु वस्तु का स्वभाव ही कारण है।
. संसार में जो भी कार्य होता है वह स्वभाव से ही प्रवृत्ति और निवृत्ति होता है । स्वभाव से ही फल की प्राप्ति होती है । फल प्राप्ति का स्वभाव होने से ही प्रवृत्ति होती है । अतः पुरुष का प्रयास निरर्थक है।
- द्रव्य का संयोग और विभाग होना स्वभाव है और उसी कारण आत्मा का संसार और मोक्ष भी स्वभावतः ही होता है। जैसे अशुद्ध सोने का शुद्धीकरण दो प्रकार से होता है, क्रिया और अक्रिया से४६ |
इस स्वभाववाद की स्थापना की गई है । स्वभाववाद का खण्डन भाववाद के द्वारा किया गया है । स्वभाव शब्द की व्याख्या करके बताया है कि स्व का भाव ही स्वभाव है अर्थात् स्वभाव में भी भाव का महत्व है । भाव के बिना स्वभाव नहीं बनेगा । अतः भाव का होना आवश्यक है । इसी लिए स्वभाववाद की अपेक्षा भाववाद ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार स्वभाववाद का भाववाद द्वारा खण्डन किया गया है। नियतिवाद :
नियतिवाद का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर में प्राप्त होता है । नियतिवाद के विषय में त्रिपिटक और जैनागम में यत्र-तत्र विशेष चर्चा की गई है। भगवान बुद्ध जब बौद्ध धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे तभी नियतिवादी भी अपने मत का प्रचार कर रहे थे। इसी प्रकार भगवान महावीर को भी गोशालक आदि नियतिवादियों के सामने संघर्ष करना पड़ा था । आत्मा एवं परलोक को स्वीकार करने के बाद भी नियतिवादी यह मानते थे कि संसार में जो विचित्रता है उसका अन्य कोई कारण नहीं है। सभी घटनाएँ नियतक्रम में घटित होती रहती है। ऐसा नियतिवादियों का मानना था । नियतिचक्र में जीव फंसा हुआ है और इस चक्र को बदलने का सामर्थ्य जीव में नहीं है। नियतिचक्र स्वयं गतिमान् है और वही जीवों को नियत क्रम में यत्र-तत्र ले जाता है। यह चक्र समाप्त होने पर जीवों का स्वत: मोक्ष हो जाता है।
गोशालक के नियतिवाद का वर्णन "सामञ्जफल सुत्त" में प्राप्त होता है । यथा प्राणियों की अपवित्रता का कोई कारण नहीं है बिना कारण ही प्राणी अपवित्र होते हैं। उसी तरह प्राणियों की शुद्धता में भी कोई कारण नहीं है। वे अकारण और अहेतुक ही शुद्ध होते हैं। स्व के सामर्थ्य से भी कुछ नहीं होता है । वस्तुतः पुरुष में बल या शक्ति ही नहीं है । सर्व सत्य, सर्व प्राणी, सर्व जीव अवश, दुर्बल
और निर्वीर्य हैं । अत: जो कोई यह मानता है कि इस शील, व्रत, तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व करूँगा अथवा परिपक्व हुए कर्मों का भोग करके उसका नाश करूँगा, ऐसी मान्यता समुचित नहीं है । इस संसार में सुख-दुःख परिमित रूप में है अतः उसमें वृद्धि या हानि संभावित नहीं है । संसार में प्रबुद्ध और मूर्ख दोनों का मोक्ष नियत काल में ही होता है । यथा सूत के धागे का गोला क्रमशः ही खुलता है ।
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