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________________ मुनि जंबूविजय Nirgrantha की संख्या भी परिपूर्ण हो जाती है ।* प्रति संपूर्ण ही है; परंतु उसमें प्रारंभकी २० बत्तीशियाँ ही हैं । पत्र-४८ हैं । लंबाई-चौड़ाई २४१४ इंच हैं । एक द्वात्रिंशिका के अंतमें 'इति द्वेष्यश्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः' ऐसा विशिष्ट एवम् विचित्र उल्लेख भी है। भांडारकर संस्था में इस ताड़पत्रप्रति पर से ही कागज़ पर की गई एक प्रतिलिपि (= नकल) भी है । जो कि नकल करने वाले लेखक ने इसमें कुछ स्थान पर अशुद्ध पाठों को जोड़ दिया है फिर भी पाठांतर लेनेवाले इच्छुक को तो बहुत ही उपयुक्त है । अगर किसी महानुभाव की स्वयं पाठांतर लेने की इच्छा हो तो इस कागज़ पर की गई नकल का उपयोग किया जा सके ऐसा है । ताड़पत्र पर लिखे गये ग्रंथ संस्था के बाहर ले जाने के लिए नहीं देते, लेकिन कागज पर लिखे ग्रंथ संस्था के नियमों का पालन करते हुए चाहे वहाँ यहाँ तक कि बाहर गाँव भी लेजाने के लिए मिल सकते हैं। एक प्रासंगिक विचारणा १९वीं द्वित्रिशिका की रचनामें दिवाकरजी ने भगवान् उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का खास उपयोग किया है । दर्शन-ज्ञान चारित्राण्युपायाः शिवहेतवः । यह १९वीं द्वात्रिंशिका की पहली कारिका का पूर्वार्ध पढ़ते ही स्पष्ट देखा जाता है कि इसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः [तत्त्वार्थ. १२११] सूत्र की स्पष्ट छाया है। ऐसे दूसरे भी स्थल हैं । उसी प्रकार यह कारिका भी तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण करती है। संघात भेदो-भयतः परिणामाच्च संभव: यह अंश "संघात भेदेभ्य उत्पद्यन्ते"[तत्त्वार्थ. ५।२६] इस सूत्र को अनुसरता है जो कि मूलसूत्र में संघात और भेद दो का ही उल्लेख है, तो भी भाष्य में संघात, भेद और उभय इन तीनों का निर्देश है। इससे यहाँ दिवाकरजी ने भाष्यका उपयोग किया है, ऐसा भी मालूम पड़ता है। ___ तत्त्वार्थसूत्र की दो पाठ्यपरंपरा प्रवर्तमान हैं । एक भाष्यसंमत पाठ परंपरा है जिसका सभी श्वेताम्बर अनुसरण करते हैं, क्योंकि भाष्य को स्वोपज्ञ-उमास्वाति प्रणीत–ही मानते हैं। दूसरी सर्वार्थ सिद्धिसम्मत पाठ परंपरा है जिसे सभी दिगंबर अनुसरते हैं। कुछ स्थानों पर इस पाठभेद के साथ बड़ा अर्थभेद भी पड़ जाता है। इस स्थान पर दिगंबर परंपरा में 'भेद-संघातेभ्यः उत्पद्यन्ते' ऐसा सूत्रपाठ है, जबकि श्वेतांबर परंपरा में 'संघात-भेदेभ्य उत्पद्यन्ते' ऐसा भाष्यसम्मत सूत्रपाठ है। दिवाकरजी ने भाष्यसम्मत सूत्रपाठ का अनुसरण किया है इसकी यहाँ स्पष्ट रूप से प्रतीति होती है । उसी प्रकार 'बद्धस्पृष्टगम(सम)द्वयादिस्नेहरौक्ष्यातिशायनात्' यह कारिका का अंश "द्वयधिकादिगुणानां तु" और "बन्धे समाधिको पारिणामिकौ" [ तत्त्वार्थ. ५।३५।३५] इस सूत्र के साथ संबंध रखता है । द्वयधिकादिगुणानां तु इस सूत्र का दिगंबर और श्वेतांबर परंपरा में भिन्न भिन्न अर्थ माने जाते हैं । दिगंबरों 'आदि' शब्दका '= वगैरह' ऐसा अर्थ न करते 'प्रकार' ऐसा अर्थ करते हैं । अर्थात् सर्वार्थसिद्धि आदि सभी दिगंबरीय व्याख्याओं के अनुसार अजघन्यगुणस्निग्ध या अजघन्य गुणरुक्ष परमाणुका उसमें 'व्यधिक' ऐसे गुणी के साथ ही बंध माना जाता है; त्र्यधिक[] चतुरधिक आदि गुणवाले के साथ बंध नहीं माना जाता लेकिन श्वेतांबर परंपरामें भाष्य और भाष्यानुसारी वृत्ति के अनुसार 'आदि' शब्द का = 'वगैरह' ऐसा सीधा अर्थ ही लिया जाता है और इससे त्रिगुणाधिक, चतुर्गुणाधिक, यावत् अनंत गुणाधिक के साथ भी बंध माना जाता है। * इस संपूर्ण द्वात्रिंशिका हमने लेख के अन्त में सन्दर्भार्थ दे दी है। - संपादक Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522702
Book TitleNirgrantha-2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1996
Total Pages326
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size14 MB
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