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पारुल मांकड
Nirgrantha
द्वितीय उल्लास की व्याख्या में आचार्य माणिक्यचन्द्र ने शब्दशक्तियों का विश्लेषण बडे ही रोचक ढंग से किया है। परमाणु विषयक चर्चा भी उन्होंने सुचारु रूप से की है। उन पर भर्तृहरि, रुय्यक और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र का प्रभाव स्वयं-स्पष्ट है। (पृ० ७५)
लक्षणाविचार की व्याख्या माणिक्यचन्द्र ने सूक्ष्मेक्षिकापूर्वक की है।
व्यंजना व्यापार को और बद्धमूल करने के लिए आचार्य माणिक्यचन्द्र ने पूर्वपक्ष का जोरदार खण्डन किया । शैत्यपावनत्व के सम्बन्ध में वे कहते हैं कि “शैत्यादि प्रवाहधर्म है, तट तो कूडे-करकट से मलिन होता है, पवित्र नहीं" और इसके संदर्भ में उन्हों ने 'असमर्थः' पाठ की ही स्वीकृति दी है, 'समर्थ': पाठ की नहीं ६ ॥ (द्रष्टव्य - पृ० १२७)
काकु-व्यञ्जकता की चर्चा माणिक्यचन्द्र के संकेत में रसावह बनी हुई है।
चतुर्थ उल्लास में ध्वनि के प्रकार निरूपण के संदर्भ में पन्थिअ...इत्यादि उदाहरण में माणिक्यचन्द्र ने आचार्य हेमचन्द्र का अनुसरण करते हुए उभयशक्ति मूल ध्वनि को नकार दिया है।
अपरांगरूप गुणीभूत में रसादि अलंकारों की चर्चा में आचार्य माणिक्यचन्द्र ने रुय्यक के अन्य ग्रन्थ अलंकारसर्वस्व का भरपूर उपयोग किया है। (पृ० ३९५)
असोढा..... इत्यादि उदाहरण की चर्चा संकेत में रसप्रद बनी हुई है।
का० प्र०-संकेत के द्वितीय और पंचम उल्लास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि माणिक्यचन्द्रसूरि न्याय और मीमांसादर्शन के भी प्रगाढ़ अभ्यासी थे।
का० प्र० के चतुर्थ उल्लास का 'रसमीमांसा' का अंश है, उस पर रचा हुआ 'संकेत' का खण्ड अनेकविध दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है- “काव्यशास्त्रीय परंपरा की पूर्वप्राप्त रसपरंपरा की और अभिनवभारती और काव्यप्रकाश की पाठपरंपरा की दृष्टि से" माणिक्यचन्द्र भी रुय्यक और सोमेश्वर की तरह अभिनवगुप्त को ही दृष्टि समक्ष रख कर रसाभिव्यक्ति के संदर्भ में विविध मतों का निरूपण करते हैं। फिर भी यह चिन्तन मौलिकता के संस्पर्श से अछूता नहीं है। हेमचन्द्र - की ही तरह उनके पास लोल्लट इत्यादि के मूल ग्रन्थ उपलब्ध होने की पूरी संभावना है। भट्टनायक के खण्डन से पूर्व माणिक्यचन्द्र रसपरंपरा के संदर्भ में बारह मतों का निर्देश करतें हैं, (पृ० २२२) जिनमें से कई मत लोचन में भी प्राप्त होते हैं। उदाहरणत: कोई विभाव को रस कहता है, कोई अनुभाव को, कोई अनुकर्ता को तो कोई अनुकार्य को । इतना तो नि:संकोच अनुमान किया जा सकता है, कि आचार्य माणिक्यचन्द्र के पास ऐसी कोई आधार सामग्री (= रसपरंपरा के संदर्भ में) अवश्य ही थी, जो आज कालग्रस्त हो गई है। विशेषत: “यह लुप्त प्राचीन परंपरा-जिसका स्रोत पंडितराज जगन्नाथ तक है" का निर्देश माणिक्यचन्द्र का अप्रतिम योगदान है। दुर्भाग्यवश संकेत की सभी आवृत्तियों में पाठपात हुआ है, या तो पाठ भ्रष्ट ही रहे हैं, अन्यथा लोचन और संकेत की सहाय से पूरी परंपरा मुखरित हो सकती थी। फिर भी अधुना यह सामग्री एक महत्त्वपूर्ण सोपान तो है ही।
रसाध्याय के संवरण में माणिक्यचन्द्र ने अभिनवगुप्त के 'अभिव्यक्तिवाद को बार-बार अनुमोदित किया है। वे कहते हैं, कि लोल्लटादि सर्व आचार्यों का स्थान भले ही यथास्थान रहे किन्तु - 'सर्वस्वं तु रसस्यात्र गुप्तपादा हि जानते' (पृ. २४०) । रसका सर्वस्व तो केवल अभिनवगुप्तपादाचार्य ही जानते हैं। अभिनवगुप्त का सम्मान करते हुए यह प्रशस्ति उनको अर्पण की गई है। अत: हेमचन्द्राचार्य की ही तरह वे अलंकार, रस, ध्वनि इत्यादि सिद्धांतों में ध्वनिपरंपरा का समर्थन करते रहे हैं। नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र और गुणचन्द्र उनके पुरोगामी रहे हैं, परंतु रसचर्चा
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