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________________ काव्यप्रकाश के अनूठे टीकाकार : आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि । पारुल माकड ईसा की बारहवीं-तेरहवीं शती में गुजरात में जो जैन-गूर्जर ग्रन्थकार हुए हैं, उनमें आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि अपनी मिसाल आप हैं। वे सुप्रसिद्ध मंत्रीश्वर वस्तुपाल के काल में विद्यमान थे । श्री र० छो० परीख के मतानुसार उनका समय ई० स० ११६० है । संभवतः वे वस्तुपाल के वृद्ध समकालिक थे । आचार्य माणिक्यचन्द्र और वस्तुपाल के बारे में एक अनुश्रुति भी प्रसिद्ध है । एक बार माणिक्यचन्द्र वटकूप ग्राम में स्थिरता कर रहे थे तब उनको वस्तुपाल ने निमंत्रित किया, किन्तु वे नहीं आये । फिर दोनों के बीच परस्पर कटाक्षयुक्त श्लोकों से व्यवहार हुआ। एक दिन वस्तुपाल ने माणिक्यचन्द्र की पौषधशाला की वस्तुएं चुरवा कर अन्य स्थल पर रखवा दी। यह जानकर आचार्य मंत्री के पास आये और कहा कि स्तम्भरूप वस्तुपाल के रहते हुए भी यह उपद्रव कैसे हो गया ? मंत्री ने कहा “पूज्यश्री का आगमन नहीं होता था इसलिए !" फिर वस्तुपाल ने सभी चीजें वापिस कर दी और अपने ग्रन्थभण्डार से भी सब शास्त्रों की एक एक प्रति माणिक्यचन्द्रसूरि को अर्पण की। आचार्य माणिक्यचन्द्र राजगच्छीय सागरचन्द्र के शिष्य थे । संस्कृत काव्यशास्त्र के काव्यप्रकाश जैसे अनमोल ग्रन्थरत्न पर संकेत नामक टीका के कर्ता के रूप में उनका नाम सदैव स्मरणीय रहेगा। संकेत के अतिरिक्त उन्होंने दो महाकाव्य - शान्तिनाथचरित और पार्श्वनाथचरित-भी रचें हैं। प्रस्तुत आलेख में हम आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि के महनीय योगदान को संकेत टीका की पश्चाद्ध में रेखांकित करेंगे; साथ ही सुसज्ज टीकाकार के रूप में उनका यथोचित संक्षिप्त मूल्यांकन भी प्रस्तुत करेंगे। "शारदादेश" के रूप में सुविश्रुत काश्मीर की भूमि में पनपा हुआ आचार्य मम्मट (ईस्वी ११-१२वीं शती) का आकर ग्रन्थ काव्यप्रकाश (का० प्र०) केवल ५०-६० वर्षों के अन्तराल में ही गूर्जर-धरा के विद्वानों, काव्यशास्त्रियों और सहृदयों के समादर का भाजन बन चुका था । यातायात के विशेष साधनों के अभाव में भी एक ग्रन्थ का दूसरे स्थानों में प्रचार-प्रसार हो सकता था यह बात उल्लेखनीय है। काव्यप्रकाश की महत्ता तो स्वयं सिद्ध ही है, परंतु आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह के संयुक्त प्रयासों से देवी सरस्वती की ऐसी समर्चना सफल हो सकी । कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने संभवत: काव्यप्रकाश पर टीका रची थी, किन्तु अद्यावधि वह अनुपलब्ध ही रही है, इसलिए आचार्य माणिक्यचन्द्र ही का० प्र० के प्रथम जैन-गूर्जर टीकाकार हैं । माणिक्यचन्द्र के पहले काश्मीर में ही का० प्र० के उपर दो टीकाएं रची गई। आचार्य मम्मट के युवासमकालिक राजानक रुय्यक का संकेत (ईसा की १२वीं शती का पूर्वार्ध) उपलब्ध सामग्री के उपलक्ष्य में का० प्र० का सर्व प्रथम टीकाग्रन्थ है। उनके तुरन्त बाद काश्मीर के ही भट्ट सोमेश्वर ने का० प्र० की काव्यादर्श-काव्यप्रकाश-संकेत नामक टीका रची है। परंपरा में यह टीकाग्रन्थ-संकेत-इन्हीं अल्पाक्षरों से प्रसिद्ध है। सोमेश्वर के थोडे ही समय बाद आचार्य माणिक्यचन्द्र के संकेत का कालनिर्धारण हुआ हैं। यह एक अनोखा योगानुयोग है कि प्रथम सभी तीन टीका ग्रन्थों के नाम संकेत हैं। इन तीन संकेत टीका ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन अत्यन्त रोचक विषय है। आवश्यकतानुसार क्वचित् माणिक्यचन्द्र के संकेत के साथ रुय्यक और सोमेश्वर के योगदान का भी यहां उल्लेख किया जायेगा। आचार्य माणिक्यचन्द्र का ग्रन्थ-सौष्ठव अद्भुत है। वे रुय्यक और सोमेश्वर का अनुसरण तो करतें हैं, फिर भी उनका बहुत कुछ मौलिक प्रदान भी है। का० प्र० के पाठसुधार का प्रशस्य कार्य उन्होंने किया है। इतना ही नहीं मम्मट की क्लिष्ट वाक्यसंरचना भी सुग्रथित कर दी है। पूर्वाचार्यों के ग्रन्थ का मनन और चिन्तन भी इन्होंने खुले मन से किया है। रुय्यक के संकेत की शैली कहीं कहीं क्लिष्ट बन जाती है, तो सोमेश्वर की अभिव्यक्ति कभी धूमिल-सी ' Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522701
Book TitleNirgrantha-1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1995
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size10 MB
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