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________________ Vol. I 1995 जैन महापुराण में ब्राह्मणीय... अजितनाथ और सुमतिनाथ तीर्थंकरों के साथ हर एवं महेश जैसे शिव के नामों के रूप में भी देखा जा सकता है। कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् इन्द्र द्वारा अजितनाथ के स्तवन में उन्हें भूतनाथ एवं नागों को धारण करनेवाला, त्रिनेत्र और भस्म से शोभित शरीरवाला बताया गया है। शिव के अतिरिक्त अजितनाथ को विष्णु के कुछ नामों से भी अभिहित किया गया है। उत्तरपुराण में पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ के पंचकल्याणकों के सन्दर्भ में जिन पांच नामों का उल्लेख हुआ है वे स्पष्टतः पंचानन शिव के महेश रूप से सम्बन्धित हैं, जिनकी स्वतन्त्र मूर्तियाँ एलिफण्टा, एलोरा (गुफा १६), ग्वालियर जैसे स्थलों से मिली हैं। सुमतिनाथ को गर्भकल्याणक, जन्माभिषेक, दीक्षा कैवल्यप्राप्ति एवं निर्वाण के अवसरों पर क्रमशः सद्योजात, वाम, अघोर, ईशान और तत्पुरुष नामों से अभिहित किया गया है। इस सन्दर्भ में तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के यक्ष के रूप में ईश्वर नामधारी यक्ष का त्रिनेत्र और वृषभ वाहन के साथ उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार आदिदेव के रूप में महादेव और दूसरी ओर आदिनाथ या ऋषभनाथ के रूप में तीर्थंकर की परिकल्पना के केन्द्र में कुछ समान तत्त्व और भारतीय चिन्तन के योग और साधना की मूल परम्परा देखी जा सकती है। " पुराणों में ऋषभदेव को आदिब्रह्मा, प्रजापति और विधाता कहा गया है जिसकी पृष्ठभूमि में आदिपुराण में वैदिक मान्यता के अनुरूप ऋषभदेव द्वारा भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि करने और उन्हें शस्त्रविद्या का उपदेश देने का सन्दर्भ वर्णित है। प्रजा के पालन तथा उनकी आजीविका की व्यवस्था के उद्देश्य से ही समाज में वैदिक धारणा के अनुरूप कार्य विभाजन और उस हेतु वर्णों की उत्पत्ति का भी संकेत किया गया है। क्षत्रिय के बाद ऋषभ के उरुओं से वैश्यों की तथा चरणों से शूद्रों की सृष्टि के सन्दर्भ मिलते हैं । इस सन्दर्भ में ब्राह्मणों की सृष्टि का अनुल्लेख सोद्देश्य और अर्थपूर्ण जान पड़ता है जिसे सभी तीर्थंकरों के अनिवार्यतः क्षत्रिय कुल से सम्बन्धित होने की परम्परा एवं वैदिक मान्यताओं (यक्ष, बलि, कर्मकाण्ड, जाति, ईश्वरवाद) को नकारने की पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। जैन ग्रन्थों में नौ बलदेवों और नौ वासुदेवों या नारायणों की सूची भी महत्त्वपूर्ण और भागवत् प्रभाव का परिणाम है। इन्हें ६३ शलाकापुरुषों की सूची में सम्मिलित कर प्रतिष्ठित स्थान दिया गया। बलदेव को वासुदेव का सौतेला भाई बताया गया है। बलदेवों की सूची में राम का भी नाम मिलता है। बलदेव के लक्षण स्पष्टत: संकर्षण या बलराम से सम्बन्धित हैं। नीलवस्त्रधारी एवं तालध्वज वाले बलदेव को गदा, रत्नमाला, मुसल या फल जैसे रत्नों का स्वामी बताया गया है जो बलराम के आयुध हैं । बलदेव के रूप में राम के निरूपण में धनुष और बाण का सन्दर्भ भी उल्लेखनीय है। उत्तरपुराण में वासुदेव को नील या कृष्णवर्ण, पीतवस्त्रधारी और गरुड़ चिह्नांकित ध्वज धारण करनेवाला बताया गया है । उपर्युक्त लक्षण स्पष्टतः ब्राह्मणीय परम्परा के वासुदेव कृष्ण से सम्बन्धित और उनका प्रभाव दर्शाते हैं। ज्ञातव्य है कि मथुरा की कुषाणकालीन अरिष्टनेमि प्रतिमाओं में तथा दिगम्बर स्थलों की नेमिनाथ की मूर्तियों में बलराम और कृष्ण का भी रूपांकन मिलता है। दूसरी ओर विमलवसही एवं लूणवसही जैसे श्वेताम्बर स्थलों पर कृष्ण की लीलाओं (कालियदमन, होली) आदि का शिल्पांकन किया गया है। जैन परम्परा में इन्द्र को जिनों का प्रधान सेवक स्वीकार किया गया है। जिनों के पंचकल्याणकों एवं समवसरण की रचना के सन्दर्भ में इन्द्र की उपस्थिति का उल्लेख अनिवार्यतः हुआ है। आदिपुराण तथा उत्तरपुराण में इन्द्र को अनेक मुखों तथा नेत्रोंवाला (सहस्राक्ष) बताया गया है । पुष्पदन्त के महापुराण में इन्द्र के वाहन के रूप में गज (ऐरावत) के साथ ही वृषभ तथा विमान का भी उल्लेख मिलता है । आदिपुराण में ३२ प्रमुख इन्द्रों का सन्दर्भ के विना नामोल्लेख आया है। इनमें १० भवनवासी वर्ग के, ८ व्यन्तर वर्ग के, २ ज्योतिषी वर्ग के तथा १२ कल्पवासी वर्ग के हैं। ऋषभदेव के जन्म के अवसर पर इन्द्र द्वारा विभिन्न प्रकार के नृत्य करने का सन्दर्भ भी महत्त्वपूर्ण है। Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522701
Book TitleNirgrantha-1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1995
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size10 MB
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