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________________ जितेन्द्र बी. शाह Nirgrantha ने यापनीय - तंत्र का उल्लेख किया है ३४ । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि उमास्वाति के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ होगा कि जो नैगमादि सात नय है ये उस समय के आगमों में उल्लिखित नहीं थे अतः यह चर्चा चलती होगी कि यह नय आगम के अनुकूल है या प्रतिकूल है। इसी बात का निराकरण उमास्वाति ने इस प्रकार किया— ये नय आगम में तो नहीं है किन्तु आगम के अनुसार वस्तु तत्त्व का विवेचन करने के कारण आगम के प्रतिकूल भी नहीं हैं३५ । इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जैन परंपरा में नयों का अवतरण वस्तु तत्त्व के विभिन्न पक्ष को पृथक्-पृथक् दृष्टि से व्याख्याबद्ध करने के लिए हुआ है। वस्तु की परिणामियता ही अलग-अलग नय दृष्टियों का आधार है। नयों का विभिन्न दर्शनों के साथ संयोजन करने की शैली अपेक्षाकृत परवर्ती है। । सन्मतिप्रकरण में नयों के विभिन्न भेद-प्रभेदों की और उनकी ज्ञान सीमा का विस्तार से विवेचन किया है। नयों का इतना विस्तृत विवेचन न तो आगमिक साहित्य में मिलता है और न तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैसे आरंभिक दर्शन ग्रंथ में उपलब्ध होता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने मूल में आगम का अनुसरण करते हुए दो नयों का प्रतिपादन किया और दार्शनिक युग के नैगम आदि नयों का इन दो मूल नयों में समावेश किया" सिद्धसेन की विशेषता यह हैं कि वे नैगमादि सात नयों में नैगमनय का निषेध करके मात्र छह नयों को ही स्वीकार करते हैं । नैगमनय को अस्वीकार करने का मूलभूत कारण यह हो सकता है कि कोई भी नय वस्तु के स्वरूप पर कोई एक ही दृष्टिकोण से विचार कर सकता है । क्योंकि नैगम में सामान्य और विशेष ऐसे दोनों दृष्टिकोणों का अन्तर्भाव माना गया था । इसलिए वह स्वतंत्र नय या दृष्टि नहीं हो सकता। यदि नैगम द्रव्य को अखंडित रूप में ग्रहण करता है तो वह संग्रहनय में अन्तर्निहित होगा और यदि वह वस्तु को भेद रूप में या विशेष रूप में ग्रहण करता है तो वह व्यवहारनय में आभासित होगा । इस प्रकार नैगमनय सांयोगिक नय हो सकता है, किन्तु स्वतंत्र नय नहीं हो सकता है। सिद्धसेन दिवाकर ने नयों का एक विभाजन सुनय और दुर्नय के रूप में भी किया है" । वस्तुतः जब प्रत्येक नय - दृष्टि को किसी दर्शन विशेष के साथ संयोजित करने का प्रयत्न किया गया तो जैन संघ में यह प्रश्न सामयिक रूपसे उत्पन्न हुआ होगा कि प्रत्येक दर्शन किसी नय- विशेष पर आश्रित / आधारित है इसलिए वह दर्शन सम्यग्दर्शन ही माना जाएगा, मिथ्यादर्शन नहीं माना जाएगा। इस आपत्ति का उत्तर देने के लिए ही सामान्यतया आचार्य सिद्धसेन ने नयों के दो प्रकारों अर्थात् सुनय और दुर्नय की उद्भावना की होगी। क्योंकि किसी नय विशेष को स्वीकार करके भी दृष्टिकोण आग्रही हो तो वह दृष्टिकोण सम्यक् नहीं हो सकता। जो नय अथवा दृष्टि अपने को ही एक मात्र सत्य माने और दूसरे का निषेध करे, वह दृष्टि सम्यक् दृष्टि या सुनय नहीं हो सकती । अन्य दर्शन यदि अपने ही दृष्टिकोण को एकमात्र सत्य मानेंगे तो वे नयाश्रित होकर भी सुनय की कोटि में नहीं रखे जाएंगे, अपितु उनका वह दृष्टिकोण दुर्नय कहा जाएग क्योंकि वह अनेकान्त दृष्टि का निषेधक होगा। सिद्धसेन के अनुसार जो नय दूसरे नयाँ अर्थात् दृष्टियों का निषेधक नहीं होता, वह सुनय होता है उसके विपरीत जो नय अपने अतिरिक्त दूसरे नयों का निषेध करता है या उन्हें मिथ्या मानता है, वह नय दुर्नय में आरोपित होता है । आचार्य सिद्धसेन के नय विवेचन की विशेषता यह है कि नयदृष्टि के सम्यक् या मिथ्या होने का आधार उनके द्वारा अन्य नयों के निषेध पर आधारित है। जो नय अपने अतिरिक्त अन्य नयों या दृष्टिकोणों को स्वीकार करता है, वह सम्यक् होता है। इसी आधार पर उन्होंने जैन दर्शन को मिथ्यामत समूह के रूप में प्रतिपादित किया है। इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्न नय दृष्टियां जो अपने आप में केन्द्रित रहकर अन्य की निषेधक होने के कारण मिथ्यादृष्टि होती है, वही जब एक दूसरे से समन्वित हो जाती है तो सम्यक् दृष्टि बन जाती हैं । इसी अर्थ में आचार्य सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522701
Book TitleNirgrantha-1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year1995
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size10 MB
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