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________________ 67 भारत में जैन धर्म के विकास के मुख्य अवस्थानं प्रचारित करने में हेमचंद्र, देवकी ति विभिन्न धर्मों के आचार्यों ने समवाय भावना को विकसित तथा उल्लेखनीय कार्य किये । जैन धर्म में आचार्य कालक, कुंदकुंद, समंतभद्र, आदि ने इस दिशा में बड़े सफल प्रयत्न किये। जनसाधारण में ही नहीं, समृद्ध व्यवसायी वर्ग तथा राजवर्ग में इन तथा अन्य आचार्यों का प्रभूत प्रभाव था । पारस्परिक विवादों को दूर करने तथा राष्ट्रीय भावना के विकास में उनके कार्य स्मरणीय रहेंगे । दक्षिण भारत के दो प्रसिद्ध राजवंशों - राष्ट्रकूट तथा गंग वंशउनमें मेल कराया । अनेक आचार्य मार्ग की कठिनाइयों की जाते थे । कालकाचार्य, कुमारजीव दीपंकर, अतिशा आदि के पश्चिमी एशिया, मध्य एशिया, चीन, तिब्बत आदि दक्षिण-पूर्व । जैन धर्माचार्यों ने के तीव्र विवादों दूर कराकर परवाह न कर दूर देशों उदाहरण हमारे सामने हैं एशिया के अनेक देशों में इन विद्वानों ने भारतीय संस्कृति का संदेश फैलाने में बड़ा कार्य किया । उनका संदेश समस्त जीवों के कल्याण हेतु था। दीपंकर के बारे में प्रसिद्ध है कि जब उन्हें ज्ञात हुआ कि भारत पर विदेशी आक्रमणों की घटा उमड़ने वाली है तब वे तिब्बत को ( जहाँ वे उस समय थे ) छोड़कर भारत आये । यहाँ वे बंगाल के पाल शासक नयपाल से मिले और फिर कलचुरि शासक लक्ष्मीकर्ण के पास गये। इन दोनों प्रमुख भारतीय शासकों को उन्होंने समझाया कि आपसी झगड़े भूलकर दोनों शासक शत्रु का पूरी तरह मुकाबला करें, जिससे देश पर विदेशी अधिकार न होने पाये । इस यात्रा में आचार्य दीपंकर को लंबे मार्ग की अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। परंतु राष्ट्र हित के सामने ये सब कष्ट उनके लिए नगण्य थे । कर्णाटक क्षेत्र में जैन धर्म ने समवाय भावना की वृद्धि में असाधारण योगदान दिया । वहाँ से लेकर घुर दक्षिण तक यह भावना फैलायी गयी । श्रवणबेलगोल के लेखों से ज्ञात हुआ है कि वहाँ विभिन्न कालों में अनेक प्रसिद्ध विद्वान् हुए। ये विद्वान् जैन शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य धर्मों के शास्त्रों में भी प्रवीण थे । अन्य धर्माचार्यों के वे कटुता और द्वेष की भावना से न होकर बौद्धिक स्तर के होते थे । कर्णाटक और आंध्र प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में साहित्य और कला का बड़े रूप में प्रसार हुआ । इसके अध्ययन से पता चलता है कि जैन आचार्यों ने समता और शांति की अभिवृद्धि में प्रभूत योगदान दिया । साथ उनके शास्त्रार्थ होते थे, परंतु गुप्तयुग के पश्चात् भारत में बौद्धधर्म का प्रभाव अत्यंत सीमित क्षेत्र पर रह गया । इसमें पूर्वी भारत तथा दक्षिण कोसल एवं उड़ीसा के ही कुछ भाग थे । दूसरी ओर जैन धर्म का व्यापक प्रसार प्रायः सम्पूर्ण देश में व्याप्त हो गया । वैष्णवों तथा शैवों ने अपने धर्मो में अन्य विचारधाराओं के कल्याणकारी तत्वों को सम्मिलित कर उदारता का परिचय दिया । मध्यकाल में उत्तर तथा दक्षिण भारत में वैष्णव तथा शैव धर्मों का प्रचार बढ़ा । जैन धर्मावलंबियों ने उनके उदार दृष्टिकोण के संवर्धन में सहयोग दिया । जैनाचार्यों ने अपने धर्म के अनेक कल्याणप्रद तत्वों को उन धर्मों में समन्वित करने का महत्वपूर्ण कार्य निष्पन्न किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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