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जैनेत्तर दार्शनिक परम्पराओं में द्रव्य स्वरूप विमर्श
है कि मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? इसके लिए 'सांख्यकारिका' में विस्तृत ऊहापोह किया है । इसी क्रम में उन्होंने प्रकृति और पुरुष सहित स्वरूप का विवेचन किया है ।
मीमांसा दर्शन
'कुमारिलभट्ट' में परम्पराओं में द्रव्य को भी का स्वरूप कहा गया है।
छह पदार्थ माने गये हैं और प्रभाकर मत में आठ । लेकिन दोनों एक पदार्थ माना गया है । यहाँ पर परिणाम के आश्रय को द्रव्य परिणाम को गुण माना गया है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि के आश्रय को द्रव्य कहते हैं । यह द्रव्य की परिभाषा जैन द्रव्य की परिभाषा से मिलतीजुलती है जिसका विवेचन आगे अपेक्षित है । यहाँ पर पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश, काल, आत्मा, मन, दिक्, शब्द, तम ग्यारह द्रव्य माने गये हैं ।
गुण
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ईश्वर कृष्ण ने पच्चीस तत्त्वों के
इस प्रकार दार्शनिक जगत् में द्रव्य की अवधारणा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी गयी है । प्रारम्भ से ही भारतीय और यूरोपीय दार्शनिकों ने इस पर अपने-अपने दृष्टिकोण से गहराई - पूर्वक अनुचिन्तन किया है । यदि हम अपने कथन के क्षेत्र को थोड़ा और व्यापक करें तो हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिकों ने भी इसे अपनी गवेषणा का विषय बनाया है । परन्तु जैन धर्म दर्शन में प्रतिपादित द्रव्य का स्वरूप अन्य की अपेक्षा तुलनात्मक दृष्टि से अत्यधिक व्यवहारिक एवं महत्त्वपूर्ण है । जैन चिन्तकों ने द्रव्य का विवेचन विस्तृत रूप से करके इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि अशुद्ध द्रव्य हेय है तथा शुद्ध द्रव्य उपादेय । शुद्ध द्रव्य को अपना कर ही मोक्ष पाया जा सकता है जो जैनेत्तर भारतीय दार्शनिकों का भी यही लक्ष्य रहा है ।
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