________________
जैनमत में ईश्वरत्व की अवधारणा
डॉ. ललित किशोर लाल श्रीवास्तव जैनमत में ईश्वरवाद का खण्डन हुआ है। यहाँ ईश्वर नामक सत्ता का अभाव पाया जाता है । सामान्यतया किसी भी धर्म के लिए किसी पराशक्ति (ईश्वर) में विश्वास आवश्यक माना गया है। गैलवे ने धर्म की परिभाषा देते हुए कहा है कि "धर्म मानव का अपने से परे किसी शक्ति में विश्वास का नाम है, जिसके द्वारा वह अपनी भावनात्मक आवश्यकताओं को संतुष्ट करता है, जीवन में स्थिरता प्राप्त करता है और जिसे वह उपासना या सेवा जैसी क्रियाओं के माध्यम से व्यक्त करता है।" उपर्युक्त परिभाषा में ईश्वर की ओर संकेत स्पष्ट है । ईश्वर धर्म का केन्द्र बिन्दु है । लेकिन जैन धर्म बौद्ध धर्म की भांति एक प्रतिष्ठित धर्म होने के बावजूद भी ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। विना ईश्वर को माने ही वह धर्म की मान्यताओं की परिधि में अपने को शत प्रतिशत उपयुक्त एवं खरा सिद्ध करता है । जैन धर्म न केवल ईश्वर की मान्यता का खण्डन करता है बल्कि ईश्वर के अस्तित्व के लिए दिए गए प्रमाणों आदि की भी आलोचना करता है।'
I
न्यायदर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को कार्यकारण प्रमाण (कारणता का सिद्धान्त) के द्वारा सिद्ध किया गया है-"प्रत्येक कार्य का कारण होता है। विश्व भी एक कार्य है, अतः इसका भी कारण अवश्य होगा" और यह कारण ईश्वर है । जैनों का इस प्रमाण के विरुद्ध यह आक्षेप है कि विश्व को कार्य के रूप में यों ही मान लिया गया है। विश्व को कार्य मानने का पूर्वपक्षी (न्याय) के पास कोई युक्तिसंगत आधार नहीं है। नैयायिकों ने सावयव होने के कारण विश्व को कार्य माना है। जैन मत में यह विचार भी दोषपूर्ण है क्योंकि नैयायिक स्वयं आकाश को सावयव होने पर भी कार्य स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार आकाश नित्य है अतः सावयवता के कारण विश्व को कार्य मानना उचित नहीं है । नैयायिकों के मत में विरोध स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
ईश्वर को विश्वरूपी कार्य का कारण मानने में जैनों के सामने एक समस्या उठ खड़ी होती है। किसी कार्य का कर्ता शरीरयुक्त होता है जैसे घड़े का कर्ता कुम्भकार शरीरयुक प्राणी है । इसलिए विश्व के कर्ता के रूप में ईश्वर को सशरीरी मानना आवश्यक है, किन्तु ईश्वर को निरवयव माना गया है । इस प्रकार जैनों के मन में अवयवहीन ईश्वर विश्वरूपी
अध्यक्ष, दर्शन विभाग, मु० म० टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया (उ० प्र०) १. द्रष्टव्य-प्रमेयकमल मार्तण्ड (आचार्य प्रभाचन्द्र) द्वितीय अध्याय तथा स्यादवावमंजरी
(मल्लिसेन सूरि), श्लोक ६ और उस पर हेमचन्द्र की टीका ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org