SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 टूटना आवश्यक भी था क्योंकि परलोक की लोरी सुनाकर मनुष्य समाज को अधिक समय तक भ्रम में रखना सम्भव नहीं था। विज्ञान ने अच्छा ही किया, हमारा यह भ्रम तोड़ दिया, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भ्रम का टूटना ही पर्याप्त नहीं है। इससे जो रिक्तता पैदा हुई उसे आध्यात्मिक मूल्य-निष्ठा के द्वारा ही भरना होगा। यह आध्यात्मिक मूल्य निष्ठा उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा है जो जीवन को शान्ति और आत्मतोष प्रदान करते है। अध्यात्म और विज्ञान का संघर्ष वस्तुतः भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का संघर्ष है । अध्यात्म की शिक्षा यही है कि भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धि हो अन्तिम लक्ष्य नहीं है । दैहिक एवं आत्मिक मूल्यों से परे सामाजिकता और मानवता के उच्च मूल्य भी है। महावीर को दृष्टि में अध्यात्मवाद का अर्थ है पदार्थ को परममूल्य न मानकर आत्मा को ही परममूल्य मानना । भौतिकवादी दृष्टि के अनुसार सुख और दुःख वस्तुगत तथ्य हैं। अतः वह सुखों की लालसा में वस्तुओं के पीछे दौड़ता है और उनकी उपलब्धि हेतु ही शोषण और संग्रह जैसी सामाजिक बुराइयों को जन्म देता है जिससे वह स्वयं तो संत्रस्त होता ही है साथ ही साथ समाज को भी संत्रस्त बना देता है । इसके विपरीत अध्यात्मवाद हमें यह सिखाता है कि सुख का केन्द्र वस्तु में न होकर आत्मा में है। जैनाचार्यों ने कहा था सुख-दुःख आत्म-केन्द्रित है । आत्मा या व्यक्ति ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भौक्ता है। वही अपना मित्र और वही अपना शत्रु है। सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा भिन्न है और दुःप्रतिष्ठित अर्थात् दुर्गुणों में स्थित आत्मा शत्रु है । वस्तुतः आध्यात्मिक आनन्द की उपलब्धि पदार्थों में न होकर सद्गुणों में स्थित आत्मा में होती है। अध्यात्मवाद के अनुसार देहादि सभी आत्मेतर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का विसर्जन साधना का मूल उत्स है। ममत्व का विसर्जन और समत्व का सृजन यही जीवन का परममूल्य है। जैसे ही ममत्व का विसर्जन होगा समत्व का सृजन होगा, और समत्व का सृजन होगा तो शोषण और संग्रह की सामाजिक बुराइयाँ समाप्त होगी। परिणामतः व्यक्ति आत्मिक शान्ति का अनुभव करेगा। अध्यात्मवादी समाज में विज्ञान रहेगा किन्तु उसका उपयोग संहार में न होकर मानवता के कल्याण में होगा। अन्त में पुनः मैं यही कहना चाहूँगा कि विज्ञान के कारण जो एक सन्त्रास की स्थिति मानव-समाज में दिखाई दे रही है उसका मूलभूत कारण विज्ञान नहीं अपितु व्यक्ति की संकुचित ओर स्वार्थवादी दृष्टि ही है । विज्ञान तो निरपेक्ष है वह न अच्छा है और न बुरा । उसका अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है और इस उपयोग का निर्धारण व्यक्ति के अधिकार की वस्तु है । अतः आज विज्ञान को नकारने की आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता है उसे सम्यदिशा में नियोजित किया जाय और यह सम्यक् दिशा अन्य कुछ नहीं यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की व्यापक आकांक्षा ही है। और इस आकांक्षा की पूर्ति अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy