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________________ सेतुबन्ध में बिम्ब-विधान 253 (vi) जळीय बिम्ब सेतुबन्ध में अनेक जलीय बिम्ब उपलब्ध होते हैरसातलजल विहलुव्वत्तअंगा विष्णमहासुरसिरुप्पअणगम्भीरा । मूलुस्थङिघमरअणा गेन्ति रसन्ता रसाअलजलुप्पीडा ॥ राक्षसों के कटे सिरों से परिपूर्ण अतएव भयंकर, उलटे हुए सों से युक्त, मूलभाग से रत्नों को उच्छालते हुए तथा भीषण रव करते हुए रसातल जल बाणों से विदीर्ण पातालविवरों से बाहर निकल रहे हैं। प्रस्तुत प्रसंग में रसातल जल की भयंकरता स्पष्टरूपेण संवेद्य हो रही है। सागर सेतुबन्ध में सागर के ही सर्वाधिक बिम्ब मिलते हैं। अनेक आश्वासों में सागर का सविस्तृत वर्णन किया गया है। गअणस्त व पडिबिम्ब परणीम व जिग्गमं विसाण व णिअलम् । भुअणस्स व मणितडिमं पल अस्सब सावखेसजलविच्छड्डम् ॥ आकाश के प्रतिबिम्ब के समान, पृथ्वी के निकासद्वार के सदृश तथा दिशाएं जिसमें विलीन हो जाती हैं ऐसा सागर भुवन-मण्डल की नीलपरिखा के समान प्रलय के अवशेष जलसमूह के रूप में फैला है। प्रस्तुत गाथा में अतिविस्तृत सागर का बिम्ब प्रतिबिम्बत हो रहा है । सम्पूर्ण वित्तीय आश्वास के अतिरिक भी सेतुबन्ध में सागर का विस्तृत वर्णन मिलता है। सरिआ सरन्तपबहा अण्गोण्णमहाणइप्पवह पह्नस्था।३८ खोहिअपङ्कक्खसरा वसन्तसेलवलिआ मुहत्तं वूढा ॥ चंचल प्रवाहों वाली, क्षुब्ध होने के कारण मैली, पर्वतों के तिरछे होने के कारण टेढ़ी हुई नदियां एक दूसरे के प्रवाह में तिरछो होकर गिरती हुई क्षणभर के लिए बढ़ जाती हैं। प्रस्तुत गाथा में चंचल प्रवाह वाली मटमैली तथा पर्वतों से गिरती हुई नदियों का बिम्ब सहज संवेद्य है। नदी (६/७९, ८१), महानदी-स्रोत (६/८७) नदी प्रवाह (१/५१) स्रोत (६/३९) मेघ (६/६२) आदि के बिम्ब भी उपलब्ध होते हैं। (vii) पर्वत सेतुबन्ध में अनेक पर्वतों का बिम्ब प्राप्त होता है । बालोएइ म विना अणुसंठाणस्स सासरस्स भरसहम् । संघिमणइसोतसरं अवहोवासघडि व जीआबन्धम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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