SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 238 ____Vaishall Institute Research Bulletin No. 7 अर्थात् वर्द्धमान के शासन में परिपूर्ण रूप से निष्णात, चार अंगुल ऊपर जमीन से चलने वाले कुन्दकुन्दाचार्य हुए। ___महनवमी मण्डप के उत्तर में एक स्तम्भ पर शक सं० १०९९ के लेख सं०४२ में नागदेव मंत्री द्वारा अपने गुरु श्री नयकीति योगोन्द्र की विस्तृत गुरु-परम्परा का उल्लेख है जिसमें आचार्य पद्मनन्दी (कुन्दकुन्द), उमास्वाति-गृद्धपिच्छ, बलाकपिच्छ, गुणनन्दि आदि आचार्यों के नामोल्लेख है। इनमें भी आ० कुन्दकुन्द को चारणऋद्धिधारी बतलाया है । यथा श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसजातसुचारद्धिः ॥४॥' यही श्लोक चामुण्डराय वस्ति के दक्षिण की ओर मण्डप के प्रथम स्तम्भ पर शक सं० १०४५ के लेख सं० ४३ में लिखा है ।२ श्रवणबेलगोल के विन्ध्यगिरि पर्वत पर सिद्धरबस्ती में उत्तर की ओर एक स्तम्भ पर शक सं० १३२० के लेख सं० १०५ में स्पष्ट रूप से आचार्य कुन्दकुन्द को अनेक विशेषणों सहित भूमि से चार अंगुल ऊपर गमन करने वाला कहा है शास्त्राधारेषु पुण्यादजनि सजगतां कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ॥१३॥ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्योऽपि संव्ययितं यतीशः। रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः ॥१४॥ विविध संघ और आचार्य कुन्दकुन्द एवं कुन्दकुन्दान्वय आचार्य कुन्दकुन्द का व्यक्तित्व और कर्तृत्व इतना अनुपम था कि दिगम्बर जैन परम्परा के प्रायः सभी संघों ने अपने को कुन्दकुन्दाचार्य का मानने में अपने को गौरवशाली अनुभव किया । यही कारण है कि मूलसंध के अनेक भेद-प्रभेद हो जाने अथवा स्वतंत्र अन्यान्य संघ बन जाने के बावजूद सभी संघ आचार्य कुन्दकुन्द या कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा का अपने को सच्चा अनुयायी मानते हुए भावनात्मक एकता, जनशासन की अभ्युन्नति एवं आत्मकल्याण के लक्ष्य में एकजुट होकर लगे रहे । और यही कारण है कि जब हम उस लम्बे समय के जैन साहित्य, संस्कृति, धर्म-दर्शन और आचार-विचारों की श्रेष्ठता तथा जैनधर्म को शाश्वतता प्रदान करने हेतु उनके त्याग की ओर दृष्टिपात करते हैं तो हमारा मस्तक गौरव से ऊँचा उठ जाता है और हमें अपने अन्दर अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है कि हम अपने भारत की इस महान् धरोहर के उत्तराधिकारी और अनुयायी है। किन्तु हम सभी को भी इस बड़े उत्तरदायित्व का बोध होने और इसके विकास के लिए चेष्टा करते रहने एवं इस विषय में निरन्तर सोचते रहने की बड़ी आवश्यकता है। १. जै० शि० संग्रह भाग १ पृ० ४२. २. वही : लेख सं० ४३ एवं ४७. ३. वही : पृ० १९७-१९८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy