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________________ नियमसार : कतिपय विशेष सन्दर्भ 177 कुमति-कुश्रुत तथा कुअवधिज्ञान विभावज्ञान कहे हैं । नियमसार में कुन्दकुन्द ने केवलज्ञान का विस्तृत विवेचन किया है। उन्होंने यहां तक कहा कि आत्मा को ज्ञान जानो और ज्ञान को आत्मा जानो, इसमें सन्देह नहीं है।' __सम्यक्चारित्र के वर्णन में सर्वप्रथम व्यवहारचारित्र के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह, त्याग, इन पांच महाव्रतों का, पश्चात् पांच समिति, तीन गुप्ति तथा पांच परमेष्ठियों के स्वरूप कहे गये हैं। निश्चयचारित्र के अन्तर्गत प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, परमसमाधि और परमभक्ति के रूप आवश्यकों का निरूपण करते हुए आवश्यक के स्वरूप का विस्तृत प्रतिपादन किया है । यह सब कथन आचार्य ने श्रमणाचार को ध्यान में रखकर किया है। उक्त नियमरूप मोक्षमार्ग के फल के रूप निर्वाण की व्याख्या आचार्य इस प्रकार करते हैं-जहाँ दुःख, सुख, पीड़ा, बाधा, मरण, जन्म, इन्द्रियाँ, उपसर्ग, मोह, विस्मय, निद्रा, तृषा, क्षुधा, कर्म, नोकर्म, चिन्ता, आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं है, वहीं निर्वाण है।' आचार्य ने निर्वाण को ही सिद्ध और सिद्ध को ही निर्वाण कहा है। निर्वाणप्राप्त जीवों (सिद्धों) के स्वभाव गुणों का कथन करते हुए वे कहते है कि निर्वाण में केवलज्ञान, केवलसौख्य, केवलवीर्य, केवलदृष्टि, अमत्तत्व, अस्तित्व और सप्तदेशत्व रहते हैं। ये गुणमात्र सात ही हैं । जबकि सिद्धों के आठ गुण कहे गये हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि नियमसार में कुन्दकुन्द ने कई विशिष्ट तथ्यों का प्रतिपादन किया है, जिन पर विचार करना आवश्यक होगा। १. अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो । गा० १७१ ॥ २. वही गा० १७९-१८१ । ३. वही गा० १८३ । ४. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं च केवलं विरियं । केवलदिट्टि अमुत्तं, अस्थित्तं सप्पदेसत्तं ।। गा० १८२ ॥ २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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