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________________ 164 Vaishali İnstitute Research Bulletin No. 7 अनुराग'-अनुराग कवि प्रेम का वास्तविक चित्रण करने के कारण यथार्थ नामवाला है । गाथाशप्तशती में उद्धृत कवि की चार गाथाओं का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि कवि का यह यथार्थ नहीं, कोई उपनाम होना चाहिए और उसका वास्तविक नाम दूसरा ही रहा होगा। इसमें सन्देह नहीं कि कवि की जो गाथाएँ उद्धृत हैं, उनमें उनका प्रेम-विरह एवं नायक-नायिकाओं की मनोदशा आदि का सुन्दर चित्रण मिलता है। गाथासप्तशती के प्रथम शतक में उद्धृत गाथा में पार्वती-परिणय का चित्रण है । शंकरपार्वती का पाणिग्रहण हो रहा है । शंकर के हाथ में कंकण के रूप में स्थित वासुकि को शंकर थोड़ा-सा दूर कर देते है और पार्वती अनुरागवश शंकर के निकट पली आती है। सखियाँ पार्वती के इस सौभाग्य की प्रशंसा करती हैं। भोजकवि ने अपने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में शिवनिष्ठ प्रथमानुराग को सम्भोग-शृंगार का रूप बताया है । अतः इस गाथा से यह भी ध्वनित होता है कि कवि ने शंकर एवं पार्वतीविषयक कोई प्राकृत-प्रबन्ध-काव्य भी लिखा होगा । वह गाथा निम्नप्रकार है : पाणिग्गहणे च्चिय पवईए णाअं सहीहि सोहगं । पसुवइणा वासुइकंकणम्मि ओसारिए दूरं ॥ (गाहा० ११६९) अर्थात्-पार्वती के भय की निवृत्ति के लिए भगवान् शंकर ने अपने अतिप्रिय वासुकि रूप कंकण को अलग कर दिया। इस प्रकार पाणिग्रहण के समय ही सखियों ने पार्वती के सौभाग्य को समझ लिया । सखियों ने समझा कि पार्वती आज ही भगवान् शंकर की इतनी प्रिय हो रही है, तो फिर आगे को बात ही कौन करे ? सुग्गीव (सुपीय)-कवि सुग्रीव का उल्लेख कवि त्रिभुवन-स्वयम्भू ने अपने "रिट्ठणेमिचरिउ" की प्रशस्ति में किया है। ज्योतिष शास्त्र में हमें सुग्रीव के उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलते है । हमारा अनुमान है कि स्वयम्भू द्वारा उल्लिखित सुग्गीव तथा दामनन्दि के शिष्य भटकेसरि द्वारा उल्लिखित सुग्गीव एक ही हैं। भट्टवोसरि का समय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने छठवीं सदी माना है। भट्टवोसरि ने सुगोव मुनि का इस प्रकार निर्देश किया है सुग्रीव-पूर्व-मुनिसूचितमन्त्रबीजैर्तेषां वचांसिन कदापि सुधा भवन्ति । सुग्रोव को चार रचनाएँ मानी जाती हैं-(१) आयप्रश्नतिलक; (२) प्रश्नरत्न, (३) आयसद्भाव एवं (४) स्वप्नफल ।' शकुन पर भी 'सुग्रोव शकुन' नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बताया जाता है। १. रिट्ठनेमिचरिउ (अप्रकाशित) अन्त्यप्रशस्ति । २. दे० गाथासप्तशती-११६९, २१३९, ३।४०, ५७ । ३. विशेष के लिए देखिये-केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९६१) प्रस्तावना-पृ. ६७।। ४. इस ग्रन्थ को लेखक ने स्वयं कोल्हापुर के शास्त्र भण्डार में देखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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