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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता है। इसी को अध्यात्म "ऋत" या "धर्म" की संज्ञा देता है। बिना नियम के ईश्वर भी कार्य नहीं करते-"ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्य. जायत्" । विज्ञान को यदि उसके मौलिक अर्थ "ज्ञान" के अर्थ में समझें तो बाह्य जगत् का और मानव-स्वभाव (अन्तर्जगत्) का ज्ञान दोनों का समावेश है। विज्ञान की अडिग गवेषणा और वैज्ञानिक वृत्ति या वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो, जिसमें मानव प्रकृति का अध्ययन भी शामिल हो तो मानवता का संकट दूर हो सकता है । आज अध्यात्म की वैज्ञानिक खोज आवश्यक है। चित्त-संशोधन (Psychic Research) भले ही अध्यात्म-तत्व के अन्वेषण में एक गवाक्ष का काम करे किन्तु विनोबा जी इसे आध्यात्मिक नहीं मानते। वह साइन्स ही है। चित्त भी मैटर (द्रव्य) के अन्तर्गत है किन्तु आत्म-तत्व उससे भिन्न है । अतः चित्तसंशोधन आत्मज्ञान नहीं माना जायगा। इसी तरह अध्यात्म में प्रेत विद्या (Spiritism) का भी समन्वय नहीं होना चाहिये । जिस चीज का भला या बुरा उपयोग हो सकता है, वह अध्यात्म नहीं है। वह तो भौतिक विश्व का एक हिस्सा है। चैतसिक शक्ति (Psychic Power) या प्रेत शक्ति (Spiritism) का सदुपयोग या दुरुपयोग दोनों हो सकता है अतः वे भौतिक शक्तियां हैं। ___असल में अध्यात्म मूलभूत श्रद्धा है और उसकी कुछ निष्ठाये हैं। सर्वप्रथम 'निरपेक्ष नैतिक मूल्यों में श्रद्धा" (Faith in absolute moral values) अध्यात्म की निष्ठा है । शाश्वत नैतिक मूल्यों को मानने से सब तरह के लाभ है, उसे तोड़ने से सब जगह हानि है। नैतिक मूल्यों में अवसरवादिता नैतिकता को कमजोर करती ही है, अध्यात्म को भी कलंकित करती है। दूसरी आध्यात्मिक निष्ठा है-"मृत्यु के बाद भी जीवन की अखंडता को स्वीकार करना । मृत्यु से जीवन खंडित नहीं होता-चाहे वह सूक्ष्मरूप में रहे या स्थूलरूप में, निराकार या साकार, देहधारी या देहविहीन । जीवन अखंण्ड है। जब पदार्थ या ऊर्जा नश्वर हैं तो आत्मा की अमरता भी स्वतः सिद्ध है । जन्म-मरण से आत्मा पर प्रभाव नहीं पड़ता।" वासांसि जीर्णानि यथा विहाय । अध्यात्म की तीसरी निष्ठा है-"प्राणिमात्र की एकता और पवित्रता"। जब सब प्राणी में किसी न किसी रूप में चैतसिक केन्द्र है, फिर उसकी एकता और पवित्रता में विश्वास करना अध्यात्म की पहचान है । अध्यात्म की चौथी आधार-निष्ठा है, विश्व में व्यवस्था और बुद्धि के प्रति आस्था । इसी का अर्थ है, ईश्वर का नाम लेना या परमेश्वर पर श्रद्धा । अध्यात्म की पांचवीं श्रद्धा है कि मानव-जीवन में पूर्णता का अनुभव हो सकता है। भले ही पूर्ण मानव हमने नहीं देखे लेकिन मानव की पूर्णता में विश्वास रखना एक आध्यात्मिक निष्ठा है। अध्यात्मवादियों का दोष यही है कि उनके अनुसार "अध्यात्म-ज्ञान पूर्ण हो चुका है"। उसमें अब किसी तरह की प्रगति शेष नहीं रही। विज्ञान के दोष अनुभव से सुधारे जाते है। इसीलिये होलोमी का दोष कोपरनिकस एवं न्यूटन का आइन्स्टीन ने सुधारा। उसी प्रकार आध्यात्मिक जगत् में प्रविष्ट दोषों का निराकरण होना चाहिये। दुर्भाग्य से अध्यात्म-साधना के नाम पर स्वार्थ ऊपर आ गया है। श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद ने नृसिंह भगवान् से कह दिया था--"बहुधा देव और मुनि अपनी ही मुक्ति का कामना करते और विजन अरण्य में मौनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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