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________________ बौद्ध वाङ्मय में अम्बपाली 147 (२) अम्बपाली के दिव्य, कोमल सौन्दर्य, कलानिपुणता, रूपविता तथा अन्ततः लौकिक सुखभोगों का त्याग कर 'बहुजनहिताय' 'बहुजनसुखाय' अपने को धर्म और सेवा के लिए सम्पूर्ण रूप से समर्पण का भाव इन साहित्यिक कृतियों, चित्रों, चलचित्रों और नाटिकाओं में मुख्य रूप से चित्रित हुआ है। चरित्र और शिल्प की दृष्टि से जो अम्बपाली में परस्पर अन्तर दृष्टिगोचर होता हो, परन्तु प्राणसूत्र लौकिक भोग वासना का तीव्र आलोक और गहन वैराग्य भाव सब में लगभग एक-सा है। इस विचार विन्दु के पल्लवन में भी प्रायः कुछ न कुछ समानता परिलक्षित होती है कि प्रायः सभी लेखकों ने अपनी-अपनी दृष्टि से अपनी विशिष्ट शैली में स्वाधीनता पूर्व और स्वातन्त्र्योत्तर भारत के सामाजिक, राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक परिवेश में अम्बपाली के चरित्र को गढ़ा है, संवारा है। उदाहरणस्वरूप बेनीपुरी की अम्बपाली, वैशाली गणराज्य की स्वाधीनता और उसकी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए, वैशाली के युवकों को एकता और स्वाधीनता की भावना से उद्वेलित करने के लिए 'रणचण्डी' भी बन जाती है और अन्ततः जीवन की विषम परिस्थितियों और द्वन्द्वों से मुक्ति पाने के लिए बुद्ध की शरण में समर्पित हो जाती है । बौद्ध साहित्य में आखिर वे कौन से मूल स्रोत हैं, जिन्होंने 'अम्बपाली' गणिका के बहुरंगी जीवन और प्रेरक व्यक्तित्व को परिपल्लवित करने में प्रेरणास्रोत का काम किया है । अगले पृष्ठों में उन स्रोतों की तलाश की जा रही है। सर्वप्रथम हमारा ध्यान जाता है, 'महापरिनिर्वाणसूत्त' (दीघनिकाय २:३.१६) की ओर, जिसमें अम्बपाली के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक सूचनाएं मिलती हैं। तदनुसार गौतमबुद्ध अन्तिम बार वैशाली आए और अम्बपाली की आम्रवाटिका में अपने भिक्षुओं के साथ ठहरे । उसे जब यह सूचना मिली तो वह आनन्दोल्लसित हो, स्वयं रथ हांकती हुई, नितांत निरलंकृत सादी वेशभूषा में, उनके चरणों में श्रद्धानत हो जा बैठी। गौतम बुद्ध ने उसके शांत सौम्य मुख को देखकर अनुभव किया-यद्यपि इस गणिका का जीवन समृद्धि, लौकिक सुखभोग और विलासिता में लिप्त है, पर इस क्षण इसके अन्तर में करुणा और सत्य की पावन आभा फूट रही है । यह सत्य धर्म के उपदेश के सर्वथा योग्य है । उसी क्षण श्रद्धावनत अम्बपाली को तथागत ने सद्धर्म का उपदेशामृत पान कराया। उसके अन्तर में 'घर से बेघर हो प्रव्रज्या' पाने का कठोर संकल्प जगाया कि 'अमृत पद' पाने की 'अर्हता' का सौभाग्य उसे मिल सके। उपदेश सुनते ही अम्बपाली का शान्त सौम्य मुख अन्तर के पावन ज्ञानालोक और आनन्द से उद्भासित हो उठा। प्रमुदित हो गौतम बुद्ध से कल के भोजन के लिए अंजलि जोड़कर विनय आग्रह किया। उन्होंने मौन से उसकी स्वीकृति दो । स्वयं शास्ता और उनका भिक्षु संघ उस गणिका के यहाँ भोजा करेंगे, यह सोच अपने सौभाग्य पर इठलाती वह लौट रही थी। राह में लिच्छिवि कुमारों के रथों के धुरों, चक्कों और जुओं से टकराती हुई अपने रथ को आनंद उल्लास से ले जा रही थी। पूछने पर जब उन्हें पता चला तो उन्होंने लाख मिन्नतें की कि बुद्ध और उनके संघ को पहले सत्कार करने का अवसर वह लिच्छिविगण को दे । बदले में हजार स्वर्ण कार्षापण वह ले ले। अम्बपाली गणिकाने कहा-"हजार कार्षापण तो क्या, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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