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________________ राजप्रश्नीय एवं पायासिराजञ्चसुत्त : तुलनात्मक समीक्षा 145 भी जीव या आएमा की सत्ता को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया है और न ही किसी ऐसे तत्त्व को जो इस लोक के शरीर को त्यागकर परलोक जाता हो । चूंकि पायासिराजझसुत्त की कथा का राजप्रश्नीय की कथा से साम्य है, अतः यह निष्कर्ष भी सहज ही में निकाला जा सकता है कि दीधनिकाय के अन्तिम संकलन काल के पहले राजप्रश्नीय की उक्त कथा लोकप्रिय हो चुकी होगी। कारण, उसी लोकप्रियता के कारण ही बौद्धागम के संकलनकर्ताओं ने उसे दीघनिकाय में संकलित कर लिया होगा। संकलनकर्ताओं ने पायासी राजा की कथा को दीघनिकाय में संकलित करते समय इस तथ्य की भी अनदेखी कर दी कि यह कथा वौद्धों के प्रतीत्यसमुत्पादवाद से मेल नहीं रखती है। सारांश यह कि पायासिराजञसुत्त की कथा राजप्रश्नीय की कथावस्तु का बौद्ध संस्करण प्रतीत होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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