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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 2 डॉ० रेनर जानसन जैसे विश्वविख्यात पदार्थ वैज्ञानिक ने यह स्पष्ट कर दिया कि पाश्चात्य जगत् में प्रचलित वैज्ञानिक भौतिकवाद की मान्यताएँ आज उतने विश्वसनीय नहीं रहों क्योंकि गर्भाशय में जीव विकास और स्मृति आदि के तथ्यों की सन्तोषप्रद व्याख्या नहीं हो पाती है। रेडियोधर्मिता की सक्रियता एवं प्रकाशपुंज में व्यवधान आदि की बातें इसको सिद्ध करती है । उन्होंने तो बताया कि सभी प्रकार के प्राकृतिक घटनाओं में, किसी न किसी प्रकार की चेतना परिलक्षित होती है (Behind all the phenomena of Nuture psychical fields are in existence) । विज्ञान कोई गवाक्षहीन जगत् या परिपूर्णतत्व नहीं है। इसीलिये आज "परामनोविद्या" से प्राप्त अनुसन्धानों को भी ध्यान से देखना चाहिये जिस पर पिछले ५० वर्षों में बडे-बडे वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिकों ने अन्वेषण एवं प्रयोग किये हैं। इस सम्बन्ध में राइन, सोएल, कैरिंगटन, टेरिल, मर्फी आदि के नाम द्रष्टव्य है जिन्होंने इन्द्रियेतर प्रत्यक्ष (Extra-Sensory Perception) जैसे अवधि-ज्ञान (Clairvoyance, Clairaudience), मनः पर्यय (Telepathy) आदि के अनेकों प्रयोग प्रदर्शित किये हैं। इनमें इन्द्रियों के स्नावयिक-मांस पेशीय-व्यवस्था के बिना भी ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त विशिष्ट पुरुषों की रहस्यानुभूतियों की भी विज्ञान के प्रस्तुत उपकरण व्याख्या करने में अक्षम रहते हैं। विज्ञान और अध्यात्म का द्वन्द्व धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। विद्वानों ने १८वीं शताब्दी में पदार्थों की एकता (Unity of Matter) स्थापित करने में लगायी और उन्नीसवीं सदी में शक्तियों को एकता (Unity of Energy) स्थापित करने का उपक्रम हुआ। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जब परमाणु के विद्युत-करणों का विखण्डन-कार्य सम्पन्न हुआ तो पदार्थ और शक्ति (Unity of Matter and Energy) की एकता स्थापित हो गयी। हाँ जीवन और आजीवन, जड़ और चेतन की सीमा-भूमि पर अभी तक अंधकार के आवरण पड़े हुए हैं, हाँ यह सीमा-रेखा इतनी क्षीण हो गयी है कि केवल प्रोटोप्लाज्म की बनावट में सिकुड़ गयो है। अब तो कृत्रिम गर्भाधान एवं "परनली शिशु" के प्रयोगों ने इस विभाजन रेखा को और भी क्षीण कर दिया है। चेतन और अचेतन की सीमान्तक रेखा को समाप्त करने का पुरुषार्थ एक नवीन विश्व-दर्शन की प्रसव पीड़ा है। लेनिन के समय ही विद्युत-कण के आविष्करण के कारण ठोस एवं स्थान घेरने वाले परमाणु की अवधारणा ध्वस्त हो गयी थी तो लोगों को लगा कि भौतिकवाद की जड़ ही कट गयी । लेनिन ने स्पष्टीकरण किया था कि दार्शनिक मैटर का उस मैटर से कोई ताल्लक नहीं जो स्थान घेरता है या जिसका वजन है । दार्शनिक मैटर तो एक संप्रत्यय (Concept) है जिसका अर्थ है कि मानव चेतना के बाहर वस्तु की स्वतन्त्र स्थिति । यह स्थिति मूल में तरंगमय है या ठोस इसका दार्शनिक मैटर से बहुत मतलब नहीं। अपनी पुस्तक में लेनिन ने स्पष्ट कहा है कि ज्ञान की प्रगति के क्रम में "मैटर" का जो भी रूप प्रस्तुत होगा, दार्शनिक मैटरवादी उसे ही स्वीकार करेंगे। श्री अरविन्द ने इसी को दूसरे शब्दों में कहा कि मैटर इन्द्रिय ज्ञान से परे है। सांख्य के प्रधान की तरह यह मूल-तत्व भी संप्रत्यय रूप ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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