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हरिभद्रसूरिकृत अष्टक-प्रकरण : एक मूल्यांकन
133 पूर्वक जो वाद करते हैं, वह धर्मवाद है।' ऐसे धर्मवाद से मोह का नाश होता है और धर्म की प्राप्ति होती है। १३. धर्मवाद-अष्टक
सभी धार्मिक व्यक्तियों के लिये पांच पवित्र धर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह (त्याग) हैं । विभिन्न प्रमाणों के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानना ही धर्म है । राग से रहित धर्म को जानने वालों के द्वारा प्रयत्नपूर्वक इष्ट अर्थ को सिद्ध करने वाले धर्म का आचरण करना चाहिये। १४. नित्यवाद अष्टक
आत्मा नित्य ही है ऐसा जिनका एकान्तिक दर्शन है उनके हिंसा आदि वृत्तियाँ कैसे जुड़ेंगी ? यदि वह आत्मा निष्क्रिय है तो मरने वाला और मारने वाला अथवा जन्म लेने वाला आदि क्रियाएँ कैसे जुड़ेंगी। इस सबके अभाव में अहिंसा एवं सत्य आदि का सद्भाव नहीं हो सकेगा। इसी तरह आत्मा सर्वगत है, धर्म से ऊर्ध्वगति होती है, अधर्म से अधोगति होती है, ज्ञान से मोक्ष होता है, आदि वचन सब औपचारिक हैं। निष्क्रिय के भोग आदि भी नहीं हो सकते हैं। अतः क्रिया भी आवश्यक है। १५. क्षणिकवाव अष्टक
यदि क्षणिकज्ञान की संतति मानी जाय तो आत्मा के विषय में असंशय उत्पन्न होता है। स्वसिद्धान्त के विरोध से हिंसा आदि कार्य भी घटित नहीं होते। और न ही हिंसा से विरतभाव हो सकता है। अतः क्षणिकवाद या अनित्यता का सिद्धान्त भी वस्तु के सही स्वरूप को प्रकट नहीं कर पाता। १६. नित्यानित्यपक्ष-मण्डन या अनेकान्तवाद अष्टक
हिंसा आदि कार्यों में विरोध उत्पन्न होने के कारण आत्मा में नित्य-अनित्य, देह से भिन्न-अभिन्न ये दोनों स्थितियाँ घटित होती हैं। ऐसा अनेकान्तवाद मानने से हिंसक के जीवन में सदुपदेश आदि से शुभभावों का बन्ध एवं अहिंसा की प्रतिष्ठा हो सकती है। अहिंसा स्वर्ग एवं मोक्ष को प्रदान करने वाली है। इसके संरक्षण के लिये सत्य आदि का पालन किया जाता है ।२ अनेकान्तवाद में ही सभी प्रमाणों एवं नयों की प्रतिष्ठा है। अतः अन्तरात्मा का साक्षात्कार करना चाहिये।
१. परलोक प्रधानेन, मध्यस्थेन तु धीमता।
स्वशास्त्रज्ञाततत्वेन, धर्मवाद उदाहृतः ॥ (१२.६) २. अहिंसैषा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी ।
एतत्संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥ (१६.५)
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