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________________ हरिभद्रसूरिकृत अष्टक-प्रकरण : एक मूल्यांकन 131 पूजा आदि से विपुल राज्य मिल सकता है, लौकिक यज्ञ करने से सम्पत्ति आदि प्राप्त हो सकती है, किन्तु ये सब क्षणिक उपलब्धियां हैं। इन कीचड़ को पानी से धोने के स्थान पर उसका स्पर्श न करना ही ठीक है। अतः सकाम अग्नि-कार्य को न करके निःकाम अग्निकार्य करना चाहिये। ५. भिक्षा अष्टक ___ तत्वज्ञों ने तीन प्रकार की भिक्षा कही है-(१) सभी सम्पत्तियों को देने वाली, (२) पौरुष को नष्ट करने वाली एवं (३) वृत्ति-भिक्षा। ध्यान आदि से युक्त साधु अपने गुरु की आज्ञा से अनारम्भी होता हुआ जो भिक्षा ग्रहण करता है वह सर्व सम्पत्करी भिक्षा कही गयी है। शुभ आशय से अपरिग्रह की वृद्धि के लिए भ्रमर-वृत्ति के अनुसार गृही और शरीर के उपकार के लिए प्रव्रज्या प्राप्त व्यक्ति इस भिक्षा को ग्रहण करता है। धर्मरहित, मूढ एवं दीनता से क्षीण शरीर वाला व्यक्ति जब उदर-पूर्ति हेतु भिक्षा ग्रहण करता है तो वह भिक्षा उसके पौरुष को हीन करने वाली होती है। इसीलिए उसे पौरुषघ्नी भिक्षा कहते हैं। तथा शक्ति से रहित अन्धे, लूले, लंगड़े आदि को जीवन-दान देते के लिए जो भिक्षा दी जाती है वह वृत्ति-भिक्षा कही जाती है । ६. पिण्डविशुद्ध अष्टक जो भोजन न स्वयं बनाया गया हो, न किसी से बनवाया गया हो और जिसमें रसों की भावना न की गयी हो वही भोजन साधुओं के लिए विशुद्ध है । साधु को दिये जाने वाले भोजन पूर्व-संकल्पित नहीं होना चाहिये। अपने भोग्य में आने वाली वस्तु में ही यथावसर भोजनदान करना चाहिये । शुभ भावना से दिया गया भोजन ही ग्राह्य होता है। इसीलिए आप्ततासिद्धि में यतिधर्म को अति दुष्कर कहा गया है । ७. प्रच्छन्न भोजन अष्टक सर्व परिग्रह से रहित, आत्मध्यानी मुमुक्षु के लिए पुण्य आदि के परिहार हेतु विशुद्ध भोजन हो देय कहा गया है। दोन, भूखे लोगों को अनुकम्पा-पूर्वक भोजन देना पुण्यबन्ध का कारण है । अपनी शक्ति के अनुसार शास्त्रोक्त विधि से भोजन-दान करना गृहस्थ का परम कर्तव्य है । दोन आदि भूखे जनों को भोजन न देने से अप्रीति, शासनद्वेष एवं कुगति में जाने की परम्परा पैदा होती है ।' पापबन्धन होता है। अतः प्रयत्नपूर्वक यथाशक्ति हमेशा भोजन दान करना चाहिये । ८. प्रत्याख्यान अष्टक प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा है-द्रव्य एवं भाव प्रत्याख्यान । जैसे लोक में बिना विधि के विद्या आदि ग्रहण नहीं की जाती है कि कहीं उसका विपरीत फल न मिले, इसी प्रकार १. अदानेऽपि च दीनादेरप्रीतिर्जायते ध्रुवम् । ... ततोऽपि शासनद्वेषस्ततः कुगतिसन्ततिः ।। (७.५) Jain Education International For Privatė & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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