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________________ हरिभद्रसूरिकृत अष्टक-प्रकरण : एक मूल्यांकन ___ डा० प्रेम सुमन जैन* आचार्य हरिभद्रसूरि जैनाचार्यों की परम्परा में कथाकार, दार्शनिक एवं व्याख्याकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। विद्वानों ने उनका समय ७३० ई. से ८३० ई० के बीच माना है ।' अतः आठवीं शताब्दी के एक समर्थ जैनाचार्य के रूप में आचार्य हरिभद्रसूरि को स्मरण किया जाता है । इनके जीवन में दर्शन, साहित्य और धर्म की त्रिवेणी समायी हुई है। इनके कुछ ग्रन्थों में जो प्रशस्तियां प्राप्त है उनसे ज्ञात होता है कि हरिभद्रसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्याबर गच्छ के साधु थे। उनके दीक्षा गुरु का नाम जिनदत्त एवं धर्ममाता का नाम साध्वी याकिनी महत्तरा था। उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और गुजरात था। उन्होंने चित्तौड़गढ़ को अपना प्रमुख कार्यक्षेत्र बनाया था। आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों की अंतिम गाथा या श्लोक में 'भवविरह' अथवा 'विरहांक कवि' शब्दों का प्रयोग मिलता है। अतः विद्वानों ने इन शब्दों को कवि के नाम के साथ जोड़कर उनकी उपाधि के रूप में प्रसिद्ध किया है। प्रस्तुत 'अष्टक-प्रकरण' नामक रचना इसी "विरह" शब्द के कारण हरिभद्रसूरि के साथ जुड़ी हुई मानी जाती है । इस तथ्य को ग्रन्थ के टीकाकारों-जिनेश्वरसूरि एवं अभयदेवसूरि ने भी स्वीकार किया है। हरिभद्रसूरि के दार्शनिक ग्रन्थों में अष्टक-प्रकरण को गिना जाता है । इस ग्रन्थ पर उन्होंने स्वयं कोई टीका आदि नहीं लिखी है। अष्टक-प्रकरण संस्कृत भाषा में लिखा गया है । इसमें आठ-आठ श्लोकों के ३२ प्रकरण हैं । प्रकरण ग्रन्थों की परम्परा में इसे आदि प्रकरण कह सकते हैं । क्योंकि हरिभद्र के पूर्व इस विद्या की रचनाएं उपलब्ध नहीं है । न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में अवश्य कुछ द्वात्रिंशिकाएँ लिखी गयी है। हरिभद्र ने इस रचना में धर्म, दर्शन, चरित्र सभी को मिला दिया है। फुटकर विषय होने के कारण इन अष्टकों को प्रकरण कहा गया है । यद्यपि सूक्ष्मता से देखेने पर सभी अष्टक एक-दूसरे से जुड़े हुए भी हैं। * विभागाध्यक्ष, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर । १. मुनि जिन विजय, (क) 'हरिभद्राचार्यस्य समय-निर्णयः' नामक निबन्ध । (ख) सिद्धिविनिश्चयटीका (पं० महेन्द्रकृमार) की प्रस्तावना, पृ० ५२-५४ । २. आवश्यकसूत्रटीका प्रशस्ति, पीटर्सन रिपोर्ट (थर्ड), पृ० २०२।। ३. शास्त्री, नेमिचन्द्र; हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पु०४९-५० । ४. अष्टकाख्यं प्रकरणं, कृत्वा यत्पुण्यमजितम् । विरहातेन पापस्य, भवन्तु सुखिनो जनाः ॥ (३२.१०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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