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________________ 106 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 आचार्य विद्यानन्द ने भी कहा है कि जिस प्रकार चित्रज्ञान में अनेक आकार होने पर भी ज्ञान की अपेक्षा से चित्रज्ञान एक रूप है । उसी प्रकार ज्ञान-दर्शन, सुख आदि की अपेक्षा से आत्मा अनेक रूप है और आत्म-द्रव्य की अपेक्षा एक रूप है । यदि सुख रूप आत्मा से ज्ञान रूप आत्मा को चित्र - अद्वैतवादी, भिन्न मानकर उसे एक नहीं मानेगा तो नील रूप आकार से पीत रूप आकार से भिन्न होने के कारण चित्रज्ञान भी अनेक रूप सिद्ध नहीं होगा । एक बात यह भी है कि आत्मा को एक रूप मात्र मानते पर चित्रज्ञान को भी एक ही रूप मानना पड़ेगा । ऐसा मानने पर उसे चित्रज्ञान कहना असंगत हो जायेगा ।' धर्मकीर्ति ने भी चित्रज्ञान में अनेक आकारों का निराकरण करते हुए कहा है कि क्या एक ज्ञान में अनेक । आकार (चित्रता) हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं किन्तु ज्ञान को अनेक आकार अच्छे लगते हैं तो इस विषय में हम क्या कर सकते है । दूसरे शब्दों में ज्ञान में चित्रता नहीं है फिर भी कहा गया है कि चित्रता मानने वालों को कोई क्या कर सकता है । इसी प्रकार यह भी कहा गया है कि चित्रज्ञान में एकाकारता भी सिद्ध नहीं होती है । चित्रज्ञान में कथंचित एकाकारता और कथंचित अनेकाकारता सिद्ध होती है । इसी प्रकार आत्मा आदि तत्व भी कथंचित एकरूप और कथंचित अनेक रूप हैं । अतः सुख आदि कान रूप नहीं है - चित्र अद्वैतवादी मानते हैं कि सुख आदि ज्ञान रूप हैं, किन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है । क्योंकि सुख आदि की उत्पत्ति एकांत रूप से ( सर्वथा ) उसी सामग्री ( कारणों) से नहीं होती है जिन कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति होती है । सुख की उत्पत्ति सातावेदनीय नामक कर्म के उदय से होती है और ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञानावरण नामक कर्म के क्षयोपशम से होती है । इस प्रकार दोनों के कारण भिन्न-भिन्न हैं । फिर भी सुख आदि की तरह ज्ञान भी अत्मारूप है अर्थात् ज्ञान और सुख आत्मा का स्वभाव है । आत्मा के अलावा अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं । कथंचित अभिन्नता होने पर भी यदि को भी ज्ञान रूप मानना पड़ेगा । सर्वथा एक नहीं है । आत्मा की अनेक भी हैं। अतः ज्ञान और सुख आदि में कथंचित भिन्नता और उन दोनों में एकता मानी जायेगी तो रूप, आलंक आदि इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि ज्ञान और सुख आदि अपेक्षा से वे एक हैं और अपने कार्यं स्वरूप आदि की अपेक्षा प्रभाचन्द्र वादिदेव सूरि आदि तर्कशास्त्री कहते भी हैं कि चित्र अद्वैतवादियों ने सुख आदि को ज्ञानस्वरूप मानने में जो यह हेतु दिया था कि अभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होता है, तो इस विषय में प्रश्न सुख आदि ज्ञान उत्पन्न करने वाले होता हैं कि सुख आदि में ज्ञान के १. तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, पृ० ३५, ११५५-१५८ । २. प्रमाणवार्तिक, ३।२१० । ३. (क) अष्टसहस्त्री, पृ० ७८ । (ख) न्यायकुमुदचन्द्र, १०५ पृ० १२९ । (ग) स्याद्वादरत्नाकर, पू० १७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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