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________________ 99 चित्र-अद्वैतवाद : समीक्षात्मक विवेचन नहीं होते हैं उसी प्रकार समान काल में उत्पन्न ज्ञान और ज्ञेय में भी ग्राह्य-ग्राह्यकभाव नहीं बनेगा। __अब यदि बाह्य पदार्थों की सत्ता मानने वाले ऐसा कहें कि बाह्य पदार्थों के बिना ज्ञान में नीलादि आकारों के अनुराग की प्रतीति नहीं हो सकती है इसलिए नीलादि आकारों का अनुरंजक बाह्य पदार्थ भी है। तो इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादि कहते हैं कि उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि स्वप्न अवस्था में बाह्य पदार्थों के अभाव में भी बाहरी पदार्थ के अनुराग की प्रतीति होती है। स्वप्न अवस्था में होने वाले हाथी, घोड़ा आदि सम्बन्धी ज्ञान में बाह्य पदार्थ अनुरंजक नहीं होता है। अन्यथा स्वप्नज्ञान और (प्रकाशित) जागृत ज्ञान में कोई भेद नहीं रहेगा। इसलिए सिद्ध है कि अर्थ निरपेक्ष ज्ञान अपनी सामग्री से अनेक आकार वाला जिस प्रकार स्वप्न में उत्पन्न होता है, उसी प्रकार जागृत अवस्था में उत्पन्न होता है। अनेक आकार वाले ज्ञान में एकत्व का विरोध नहीं है-यदि कोई, चित्राद्वैतवादी से ऐसा पूछे कि अनेक आकार रूप से प्रतिभासित होने वाली एक बुद्धि में एकत्व किस प्रकार सम्भव है ? तो इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहते हैं कि बुद्धि (ज्ञान) में प्रतिभासित होने वाले अनेक आकारों का विवेचन (पृथक्करण) नहीं होने से, उसमें एकत्व का विरोध नहीं है। अनेक आकारों से प्रतिभासित होने वाली बुद्धि (ज्ञान) एक ही है, अनेक रूप नहीं है । क्योंकि वह बाह्य आकारों (चित्रों) से विलक्षण होती है। बाह्य आकारों से वह विलक्षण इसलिए है कि बाह्य चित्र (नाना आकार) का पृथक्करण करना सम्भव है, किन्तु बुद्धि के नील-पीत आदि आकारों का पृथक्करण करना असम्भव है अर्थात् 'यह बुद्धि' (ज्ञान) है और 'ये नील, पीत आदि आकार' हैं । इस प्रकार पृथक्-पृथक् विभाजन बुद्धि में नहीं हो सकता है। चित्रपट आदि में चित्ररूपता की जो प्रतीति होती है, उसमें ज्ञानधर्मता कैसे संभव है ? इसके उत्तर में चित्राद्वैतवादी कहता है कि उसमें अर्थधर्मता नहीं बन सकती है। इसके अलावा विकल्प होता है कि चित्रपट आदि एक अवयवी रूप निरंश वस्तु है अथवा उसके विपरीत अंश सहित ? चित्रपट आदि को निरंश वस्तु मानने में दोष-चित्र-अद्वैतवादो कहता है कि यदि चित्रपट आदि को एक अवयवी रूप निरंश वस्तु माना जायेगा तो नील भाग के ग्रहण करने १. समकालत्वे तु ज्ञानं ज्ञेययो...'ग्राह्यग्राहकभावाभावः --- (क) न्यायकु० च० पृ० १२५, (ख) स्व० र० पृ० १७२ । २. प्रमाणवार्तिक, २।२२० और भी देखें न्या० कु० च० पृ० १२५-१२६, स्याद्वाद रत्नाकर, पृ० १७३ । ३. (क) वही । (ख) प्रमेयकमल मार्तण्ड, पृ० ८५ । ४. न्या० कु० च०, पृ० १२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522606
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 7
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNand Kishor Prasad
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1990
Total Pages290
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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