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जैन वाक्य दर्शन पुनः मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहें कि हेतुवाचक शब्द से होने वाली हेतु की प्रतीति ही शब्द-ज्ञान है, शब्द से ज्ञात हेतु के द्वारा जो साध्य का ज्ञान होता है उसे शाब्दिक ज्ञान न मानकर अनुमान ही मानना होगा अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा तो जैन दार्शनिक प्रत्युत्तर में कहेंगे कि फिर वृक्ष शब्द से स्थानादि की प्रतीति में भी अतिप्रसंग दोष तो मानना होगा। क्योंकि जिस प्रकार हेतु शब्द का व्यापार अपने अर्थ (विषय ) की प्रतीति कराने तक ही सीमित है उसी प्रकार वृक्ष शब्द को भी अपने अर्थ की प्रतीति तक ही सीमित मानना होगा।
दूसरी आपत्ति यह है कि विशेष्यपद विशेष्य को विशेषण-सामान्य से, या विशेष-विशिष्ट से या विशेषण-सामान्य और विशेष ( उभय ) से अन्वित कहता है। प्रथम विकल्प अर्थात् विशेष्य विशेषण सामान्य से अन्वित होता है यह मानने पर विशिष्ट वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति सम्भव नहीं है क्योंकि विशेष्य पद का सामान्य-विशेषण से अन्वित होने पर विशेष-वाक्यार्थ का बोध सम्भव नहीं होगा। दूसरा विकल्प मानने पर निश्चयात्मक-ज्ञान नहीं होगा--क्योंकि ( मीमांसकों के अनुसार ) शब्द से जिसका निर्देश किया गया है, ऐसे प्रतिनियत विशेषण से अपने उक्त विशेष्य में अन्वय करने में संशय उत्पन्न होगा क्योंकि विशेष्य में दूसरे अनेक विशेषण भी सम्भव हैं अतः अपने इस विशेष्य में अमुक विशेषण ही अन्वित है, ऐसा निश्चय नहीं हो सकेगा। यदि पूर्वपक्ष अर्थात् मीमांसक प्रभाकर की ओर से यह कहा जाये कि वक्ता के अभिप्राय से प्रतिनियत विशेषण का उस विशेष्य में अन्वय हो जाता है तो यह कथन भी समीचीन नहीं है क्योंकि जिस पुरुष के प्रति शब्द का उच्चारण किया गया है उसे तो वक्ता का अभिप्राय ज्ञात नहीं होता है अतः विशेषण का निर्णय सम्भव नहीं होगा। यदि यह कहा जाये कि वक्ता को अपने अभिप्राय का बोध होता है अतः वह तो प्रतिनियत विशेषण का
वय कर ही लेगा। किन्त ऐसा मानने पर रूप में कथन करना अनावश्यक होगा क्योंकि शब्द का कथन दूसरों का अर्थ की प्रतिपत्ति कराने के लिए होता है स्वयं अपने लिए नहीं। तीसरा विकल्प अर्थात् विशेष्यपद विशेष्य को उभय से अन्वित कहता है, यह मानने पर उभयपक्ष के दोष आवेंगे अर्थात् न तो विशिष्ट वाक्यार्थ का बोध होगा और न निश्चयात्मकज्ञान होगा।
इसी प्रकार की आपत्तियाँ विशेष्य की क्रियापद और क्रिया-विशेषण से अन्वित मानने के सम्बन्ध में भी उपस्थित होगी । पुनः पूर्वपक्ष के रूप में मीमांसक प्रभाकर यदि यह कहे कि पद से पद के अर्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है और फिर वह वाक्यार्थ का निश्चय करता है किन्तु ऐसा मानने पर तो रूपादि के ज्ञान से गंधादि का निश्चय भी मानना होगा, जो कि तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है। अतः अन्वित अभिधानवाद अर्थात् पदों से पदान्तरों के अर्थों से अन्वित अर्थों का ही कथन होता है इसलिए पद के अर्थ की प्रतीति से वाक्य के अर्थ की प्रतीति होती है ऐसा प्रभाकर का मत श्रेयष्कर नहीं है।
वस्तुतः अभिहितान्वयवाद और अन्विताभिधानवाद दोनों की एकांगी है। जैन दार्शनिक अभिहितान्यवाद की इस अवधारणा से सहमत है कि पदों का शब्द के रूप में वाक्य से स्वतन्त्र
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