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________________ 34 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 पारस्परिक सम्बन्ध का बोध होता है और उनकी सम्बद्धता के बोध से वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। इस प्रकार अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्यार्थ के प्रति पदार्थों का ज्ञान ही कारणभूत है, दूसरे शब्दों में पदों के अर्थपूर्वक ही वाक्यार्थ अवस्थित है।' संक्षेप में पदों से अभिधाशक्ति के द्वारा पदार्थ का बोध होता है, फिर वक्ता के तात्पर्य अर्थात् वक्ता द्वारा किये गये विभक्ति प्रयोग के आधार पर उन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) का ज्ञान होता है और इस अन्वयबोध (पदों के सम्बन्ध ज्ञान) से वाक्यार्थ को बोध होता है। यही अभिहितान्वयवाद है। क्योंकि इसमें अभिहित अर्थात् पद द्वारा वाच्य पदार्थ के अन्वय अर्थात् पारस्परिक सम्बन्ध के ज्ञान से वाक्यार्थ का ज्ञान होता है। इस सिद्धान्त में वाक्यार्थ का बोध तीन चरणों में होता है--प्रथम चरण में पदों को सुनकर उनके वाच्य अर्थात् पदार्थों का बोध होता है उसके पश्चात् दूसरे चरण में उन पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध (अन्वय) का ज्ञान होता है। तब तीसरे चरण में इस अन्वय से वाक्यार्थ का बोध होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार वाक्य से स्वतन्त्र पदों ( शब्दों ) का एक अलग अर्थ होता है और पदों के इस अर्थ के ज्ञान के आधार पर ही वाक्यार्थ का निश्चय होता है। दूसरे शब्दों में वाक्यार्थ का बोध पदों के अर्थबोध पर ही निर्भर करता है, पदों के अर्थ से स्वतन्त्र होकर वाक्य का कोई अर्थ नहीं होता है। अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों का वाक्य से एवं दूसरे पदों से निरपेक्ष स्वतन्त्र अर्थ भी होता हैं किन्तु अपना अर्थ नहीं रखता है। वाक्यार्थ पद वाक्य से स्वतन्त्र अपना अर्थ रखता है जब कि वाक्य पद से स्वतन्त्र पदों के वाक्यार्थ के पारस्परिक सम्बन्ध या अन्वय पर निर्भर करता है। जब तक पदों के अर्थों अर्थात् पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता है तब तक वाच्यार्थ का बोध नहीं होता है। वाक्यार्थ के बोध के लिए दो बातें आवश्यक हैं--प्रथम पदों के अर्थ का ज्ञान और दूसरे पदों के पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान । पुनः पदों के पारस्परिक सम्बन्ध के भी चार आधार हैं-(१) आकांक्षा, (२) योग्यता, (३) सन्निधि और (४) तात्पर्य । १. आकांक्षा-प्रथम पद को सुनकर जो दूसरे पद.को सुनने की जिज्ञासा मन में उत्पन्न होती है-वही आकांक्षा है। पुनः एक पद की दूसरे पद की जो अपेक्षा रहती है वही आकांक्षा है। आकांक्षारहित अर्थात् परस्पर निरपेक्ष-गाय, अश्व, पुरुष, स्त्री आदि अनेक पदों के उच्चारण से वाक्य नहीं बनता है। जब कि साकांक्ष अर्थात् परस्पर सापेक्ष पद ही वाक्य की रचना करते हैं। २. योग्यता----'योग्यता' का तात्पर्य है कि अभिहित पदार्थों के पारस्परिक सम्बन्ध में विरोध या बाधा नहीं होना चाहिए अर्थात् उनमें पारस्परिक सम्बन्ध की सम्भावना होना चाहिए। उदाहरणार्थ आग से सींचो-इस पद समुदाय में योग्यता नहीं है क्योंकि आग का सींचने से कोई सम्बन्ध है। अतः ऐसे असम्बन्धियों की योग्यता से रहित पदों से सार्थक वाक्य नहीं बनता है। १. (अ) पदार्थानां तुं मूलत्वमिष्टं तद्भावनावतः ॥ मीमांसाश्लोकवार्तिक वाक्या० १११ । (ब) पदार्थपूर्वकस्तस्माद्वाक्यार्थोयमवस्थितः ।। __ " ३३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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