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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 तुम याद करोगे मुझे कभी, तो बस फिर मैं पा चुकी सभी । और इस सन्तोष में कितना दैन्य अन्तर्निहित है, वह सहज ही अनुभवगम्य है । 182 जब चित्रकूट की कुटिया में सीता, लक्ष्मण और उर्मिला का मिलन कराती हैं तो लक्ष्मण देखते हैं कि उर्मिला इतने ही दिनों में कितनी क्षीणकाय हो गई है, उन्हें वह केवल रेखारूप मे दृष्टिगत होती है । उर्मिला की विवशता और लाचारी उसके इन शब्दों में कितनी अधिक मुखर हो उठी है- ' पर जिसमें सन्तोष तुम्हें हो, मुझे उसी में है सन्तोष ।' 'साकेत' का पूरा नवम सर्ग तो प्रोषित-पतिका उर्मिला के ही उच्छ्वासों से निस्सृत है । यहाँ विरह-ताप का ऊहात्मक वर्णन है और षऋतु-वर्णन का भी समावेश है। साथ ही उर्मिला की मानसिक स्थिति का मनोवैज्ञानिक चित्रण भी बहुत सुन्दर हुआ है । वह विरहकाल में जो कुछ खाती-पीती है, वह केवल इसलिए कि 'कैसे भी तो पकड़ प्रिय के वे पद मरूँ ।' कहने का तात्पर्य यह कि उसे जीवन की लालसा केवल इसलिए है कि वह अपने प्रियतम के चरणों को पकड़कर मरना चाहती है— उसकी इस उक्ति में कितनी मार्मिक व्यथा है । अपनी विरह-वेदना से मर्माहत होने पर उसमें विश्व के साथ सहानुभूति की भावना जाग्रत होती है । वह हृदय से चाहती है कि यह सभी विश्व सुखी हो, मेरी तरह कोई भी दुःख का भागी न बने । संस्कृत के आचार्यों ने अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता तथा मरण विरह की इन दस अवस्थाओं का उल्लेख किया है । खोज करने पर 'साकेत' में इनमें से केवल अन्तिम अवस्था को छोड़कर सभी अवस्थाएँ मिल जायेंगी । 'साकेत' में प्रकृति-चित्रण साकेतकार ने प्रकृति के एक-से-एक मनोहारी चित्र अंकित किये हैं । प्रथम सर्ग में ही उषा का मनोरम चित्र हमें देखने को मिलता है । इसके पश्चात् फिर पाठक पर्याप्त आगे जाकर चित्रकूट का दृश्य देखता है । शोभा' में अपने नवम सर्ग में उर्मिला के वियोग वर्णन में कवि को प्रकृति का डटकर वर्णन करने का अवसर मिलता है । अपने विरह की स्थिति में उर्मिला को 'प्रकृति की प्रियतम की आभा दिखाई देती है । कभी वह चक्रवाक को सान्त्वना देती है, कभी कोयल को धैर्य धराती है, कभी लता को अवसर से लाभ उठाने के लिए प्रेरित करती है, कभी कली को शिक्षा का पाठ पढ़ाती है । मकड़ी और मक्खी भी उसकी सहानुभूति से वंचित नहीं । अपने रुदन से वह एक पत्ता भी सूखा नहीं रहने देना चाहती और उसे सरस बनाने के लिए अंचल पसार लेती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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