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________________ 169 गुप्तजी की काव्य-दृष्टि गुप्तजी की दृष्टि में कवि-कर्म एक कठिन साधना है। अतः साधारण को असाधारण बनाने का कवि का दावा खोखला होता है। जब तक विषय-वस्तु श्रेष्ठ होगी तब तक श्रेष्ठ काव्य का सृजन संभव नहीं होगा । वे भारत-भारती में स्थापना देते हैं कवि की कठिनतर कर्म की करते सही हम धृष्टता। पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता । और अनेक वर्षों बाद अपनी श्रेष्ठतम कृति साकेत में भी वे इसी विचार को सम्पुष्ट करते हैं राम तुम्हारा वृत्त स्वय ही काव्य है। कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है। इस प्रसंग में मैं क्रोचे की निम्न पंक्तियों को उद्धृत करने का लोभ नहीं संवरण कर पा रहा हूँ He who has nothing defirite to say may try to hide his internal emptyness with the flood of words, although at bottom, they convey nothings. अर्थात् जिसके पास कहने के लिए कोई ठोस बात नहीं होती है वह शब्द जाल में अपने खोखलेपन को छिपाना चाहता है और वे शब्द-जाल तथ्य की कोई बात नहीं कह पाते हैं। इसलिए गुप्तजी यदि विषय के ठं.सपन और अभिव्यक्ति की कुशलता पर बल देते हैं तो वास्तव में वे कविता की सही व्याख्या के समीप होते हैं । कविता की परिभाषा देते हुए गुप्तजी भारतीय रसवाद का समर्थन करते दीखते हैं कि सिद्ध कविता आनन्ददायी शिक्षिका होती है __"आनन्ददात्री शिक्षिका है सिद्ध कविता कामिनी।" इसमें आनन्द शब्द जहाँ रस के लिए प्रयुक्त प्रतिशब्द है वहीं शिक्षिका हमें मम्मट के काव्यप्रयोजनों में प्रयुक्त "व्यवहारविदे" की याद दिलाती है । कविता की विषय-वस्तु के प्रसंग में गुप्तजी कविता को मनोरंजन का साधन नहीं उपदेश और आदर्श का व्याख्याता मानते हैं। उनकी दृष्टि में रामचरित मानस श्रेष्ठ कविता की कसौटी है । इसमें कवित्व और लोकप्रियता दोनों का मणिकांचन संयोग है। उनका कथन द्रष्टव्य है केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए। उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए। क्यों आज 'रामचरित मानस' सब कहीं सम्मान्य है। सत्काव्य-युत उसमें परम आदर्श का प्राधान्य है। गुप्तजी कविता को मानसिक विलास का सावन नहीं जीवन की प्रेरक-शक्ति मानते हैं; जिसमें क्रांति की शक्ति, संजीविनी की प्राणवक्ता और सूर्य की दीप्ति होती है 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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