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________________ प्राचीन भारतीय जैन समाज में नारी शिक्षा 153 बाद माना गया है।' सम्भवतः नारी की शिक्षारम्भ पाँच वर्षों की अवस्था में हो जाता था। पांच से आठ वर्षों के बीच अक्षराभ्यास कराकर बालकों को कलाचार्य के पास भेज दिया जाता था। बालिकाओं को यों तो किसी राजकीय पाठशाला में भेज दिया जाता था अथवा उनके लिए महलों में ही शिक्षकों की व्यवस्था की जाती थी। - जैन समाज में दो प्रकार की छात्राएँ थीं--प्रथम कोटि की वे छात्राएँ थीं, जिनका अध्ययन काल आठ वर्षों का था और दूसरी कोटि में वैसी छात्राएँ थीं, जो भिक्षुणी बनकर आजीवन अध्ययन करती रहती थी । वस्तुतः स्त्रियाँ अपनी पारिवारिक स्थिति के अनुसार शिक्षा प्राप्त करती थीं। यही कारण है कि चौंसठ कलाओं में निपुण एवं साधारण ज्ञान से सन्तोष प्राप्त कर लेने वाली दोनों प्रकार की छात्राओं की चर्चा हमें जैन वाङ्मय में प्राप्त होती हैं। नारियों के लिए पुरुष एवं स्त्री दोनों प्रकार के शिक्षकों की व्यवस्था की गयी थी। पुरुष शिक्षक से निम्नांकित योग्यताओं की अपेक्षा रखी जाती थी--- "उत्तम क्षमादि धर्म जिसे प्रिय हो, जो शुद्ध धर्म वाला हो, धर्म में हर्ष करने वाला हो, पाप से डरता हो, अखण्डित आचरण वाला हो, हितोपदेशी हो, गुणों में अगाध हो, पाखण्डियों से दबने वाला न हो, चिरकाल का दीक्षित हो, अल्पभाषी हो, आचार अथवा प्रायश्चित्त आदि ग्रन्थों को जानने वाला हो।" भिक्षुणी संघ नारी की शास्त्रीय शिक्षा का प्रधान साधन था। अतः यह कहा जाता है कि बौद्ध एवं जैन युगीन भिक्षुणी संघ से नारी शिक्षा को प्रश्रय मिला। गम्भीरता से सोचने पर स्पष्ट होता है कि भिक्षुणी संघ में शास्त्रीय शिक्षा देकर केवल अनागारावस्था में स्थित नारी को अनुशासन में रखने का उचित प्रबन्ध किया गया। गणिकाओं को भी जैन समाज ने शिक्षिका के पद पर प्रतिष्ठित किया था। "वेश्या वैदिक शास्त्र की पण्डित होती थीं। इस शास्त्र का अध्ययन करने के लिए कितने ही लोग वेश्याओं के पास जाया करते थे ।' 'चम्पा नगरी में देवदत्ता नाम की गणिका निवास ४. डा० प्रेम सुमन जैन, कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ ई० पृ० २२८ । ५ डा० डी० सी० दास गुप्ता, जैन सिस्टम ऑव एजुकेशन, कलकत्ता १९४२, पृ० ४१-४२। ६. डा० एन० एन० शर्मा, जनवाङ्गमय में शिक्षा के तत्त्व, शोध-प्रबन्ध, पटना विश्व विद्यालय, १९७५ ई०, ५१६ । ७. वही एवं मूलाचार १८३-८४ । ८. डा० कोमलचन्द्र जैन, बौद्ध एवं जैन आगमों में नारी जीवन, अमृतसर, पृ० १९६ । ९. मधुकरमुनि, सूत्रकृताङ्ग, ब्यावर १९८२ ई०, ४-१-२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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