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Vaishali Institute Research Bulletin No. 6
ब्राह्मण और श्रमण विचार धारा में अन्तर ब्राह्मण विचार-धारा
श्रमण विचार-धारा (१) सामाजिक व्यवस्था के लिए ब्राह्मण (१) श्रमण धर्म सामाजिक व्यवस्था के लिए
व्यवस्था वर्ण-संघटन को आवश्यक वर्ण-संघटन को महत्व नहीं देता। यह मानती है, जो ब्राह्मण को सर्वोपरि धर्म अहिंसा का वट्टर समर्थक है तथा महत्व देती है और शूद्र को अछूत एवं
जीवों के रक्षक होने के नाते यह धर्म यज्ञादि कर्मों का अनधिकारी मानती जीवों के रक्षक यानी क्षत्रिय को सर्वो
परि मानता है। (२) ब्राह्मण धर्म की अन्तिम लक्ष्य प्राप्ति (२) श्रमण धर्म द्वारा मोक्षप्राप्ति आर्थिक अथवा मोक्ष प्राप्ति हेतु यज्ञ करने एवं
दृष्टि से सर्व सुलभ और सहज साध्य दान देने के कारण यह धर्म अति व्यय है। मधुकरी वृत्ति इसकी कैवल्य-यात्रा कारक है। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए का साधन है।
सिर्फ सम्पन्न व्यक्ति ही उद्यत होते हैं। (३) ब्राह्मणधर्म शौच-मूलक धर्म है। (३) श्रमण धर्म विनय-मूलक धर्म है । (४) ब्राह्मणधर्म में यज्ञ में बलि-प्रथा का (४) श्रमण धर्म बलि-प्रथा का घोर विरोधी
प्रचलन है। यज्ञ में जानवरों की बलि है, क्योंकि यह अहिंसा पर सर्वाधिक देकर इष्टदेव को खुश करने की प्रथा बल देता है।
(५) ब्राह्मण-धर्म आनन्द की प्राप्ति चाहता
है। आनन्दाचरण में ही यह स्वर्गा
कांक्षी है। (६) ब्राह्मण-धर्म योगवादी या प्रवृत्तिवादी
है। यह जीवन के प्रति रागात्मक आस्था रखता है। (७) ब्राह्मण धर्ण में आश्रम-व्यवस्था अनि-
वार्य है । बचपन में मनुष्य शिक्षा ग्रहण करता है, द्वितीय सोपान में मनुष्य सृष्टि करता है, तृतीय सोपान में ऋचात्रय से मुक्ति का प्रयास करता है तथा चौथी अवस्था में संन्यास धारण करता
(५) श्रमण-धर्म कैवल्यज्ञान प्राप्त कर मोक्ष
तक पहुँचाना चाहता है, क्योंकि कैवल्य
ही इसकी सर्वोच्च उपलब्धि है । (६) श्रमण धर्म निवृत्ति-परक है। जीवन
इसके लिए कैवल्य-प्राप्ति का साधन है,
राग-निदर्शन का साध्य नहीं। (७) श्रमण धर्म में संन्यास ग्रहण करने के
लिए वय-सीमा का बन्धन आवश्यक नहीं। मनुष्य किसी भी सोपान में श्रमण बन सकता है।
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