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________________ अहिंसा का महत्त्व 113 डॉ० सागरमल जैन का कहना है कि अहिंसक-चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है । समाज जब भी खड़ा होता है आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर ही खड़ा होता है । अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। क्योंकि हिंसा का अर्थ घृणा, विद्वेष, आक्रामकता है। जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होगी सामाजिकता की भावना समाप्त हो जावेगी, समाज ढह जावेगा । अतः समाज और अहिंसा सहगामी है। दूसरे शब्दों में यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानते हैं तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा उसके लिए स्वाभाविक ही है। जब भी कोई समाज खड़ा होगा और टिकेगा तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा। अहिंसा केवल बाह्य नहीं है आन्तरिक भी है। बाह्य अहिंसा का सम्बन्ध समाज से होता है और आन्तरिक अहिंसा का सम्बन्ध व्यक्ति से । इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों ने हिंसा के दो रूप माने हैं स्व की हिंसा और पर की हिंसा । दूसरों को कष्ट देना या पीड़ा पहुँचाना पर की हिंसा है किन्तु अपने सद्गुणों को नष्ट करना स्व की हिंसा है। जैन, बौद्ध और गीता का तुलनात्मक अध्ययन में कहा गया है कि जब हिसा हमारे स्व स्वरूप का या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और जब वह दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है वह पर की हिंसा है। स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है तो पर की हिंसा के रूप में वह सामाजिक पाप किन्तु उसके ये दोनों रूप दुराचार की कोटि में ही आते हैं। अतः अपने इस व्यापक अर्थ में हिंसा को दुराचार की और अहिंसा को सदाचार की कसौटी माना जा सकता है। जैनों के अनुसार समस्त सद्गुण अहिंसा में निहित है। प्रश्न-व्याकरण-सूत्र में अहिंसा के ६० नाम दिये गये हैं। इन नामों में हम देखते हैं कि मानवीय गुणों के समस्त पक्ष उपस्थित हैं । अहिंसा मानवीय गुणों का पूंजीभूत तत्त्व है। मानवीय गुणों में सबसे महत्त्वपूर्ण गुण विवेक है और यह विवेक केवल अहिंसक जीवनदृष्टि में ही जीवित रह सकता है । हिंसा के के लिए आवेश और आक्रोश आवश्यक है। बिना आवेश और आक्रोश के हिंसा संभव नहीं है । किन्तु हम देखते हैं जहाँ आवेश और आक्रोश होते हैं वहाँ विवेक नष्ट हो जाता है। अतः विवेक को जीवित रखने के लिए अहिंसा आवश्यक है। मानवतावाद के विचारकों ने विवेक को प्राथमिक मानवीय गुण माना है। सी० बी० गर्नेट और इजराइल के अनुसार नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। विवेक या प्रज्ञा सर्वोच्च सद्गुण है और विवेकपूर्ण जीवन जीने में ही नैतिकता की अभिव्यक्ति होती है । किन्तु ऐसी अभिव्यक्ति अहिंसा के बिना शक्य नहीं है। जैन परम्परा में विवेकपूर्ण आचरण को ही अहिंसा कहा गया है । दशवकालिक सूत्र में जो जीवन को विभिन्न क्रियाओं को विवेक या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण को नहीं करने वाला बतलाया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि विवेक और अहिंसा एक दूसरे के सहगामी हैं । विवेक ही हमें यह बताता है कि संसार के दूसरे प्राणी हमारे समान हैं। इसी समानता की भावना या आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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