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________________ जैन साहित्य में अहिंसा डॉ. विजय कुमार जैन* जैन आगमों एवं साहित्य में अहिंसा को सर्वोच्च धर्म कहा गया है। जैसे जगत् में मेरु पर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल कुछ नहीं है, उसी प्रकार अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है । हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह के त्याग में हिंसा का त्याग प्रथम है । शेष इस व्रत के लिए पूरक धर्म कहे गये है। जैसे खेत में धान बोने पर उसकी रक्षा के लिए चारों ओर बाडी लगा देते है वैसे ही सत्य आदि चार व्रत अहिंसा की रक्षा के लिए बाडी रूप हैं । अहिंसा को जप एवं सत्य आदि को उसकी रक्षा के लिए सेतु बतलाया गया है। आचार्य रामचन्द्र के अनुसार आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है । असत्य आदि सभी विकार आत्म परिणति को बिगाड़ने वाले हैं, इसलिए वे भी हिंसा हैं । आचारांग सूत्र में तीन महाव्रत-अहिंसा, सत्य और वहिर्धादान का उल्लेख है। स्थानांग एवं उत्तराध्ययन सूत्र में भी इनकी व्याख्या मिलती है । हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह से विरत रहने को व्रत कहते है । इन पाँच पापों को एक देश से त्याग को अनुव्रत और पूरी तरह से त्याग करने को महाव्रत कहते है। इन ब्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ है। जिनको ध्यान में रखने से व्रत दृढ हो जाते हैं । अहिंसा व्रत की भावनाएं इस प्रकार है-वचन गुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या समिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन । वचन की प्रवृत्ति को अच्छी रीति से रोकना मनोसुप्ति है, पृथ्वी को देखकर सावधानीपूर्वक चलना ईर्या समिति है। सावधानीपूर्वक देखकर वस्तु को उठाना और रखना आदान निक्षेपण समिति है। दिन में अच्छी तरह देखभाल कर खाना-पीना आलोकित पान भोजन है। इन व्रतों के विरोधी जो हिंसा आदि हैं, उनसे विमुख रहने के लिए उपाय एवं भावनाएँ बतलाई गई हैं। विचारना कि हिंसा आदि पाँच-पाँच इस लोक और * रिसर्च एसोसिएट, पालि एवं बौद्ध-अध्ययन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी १. श्रमण सुत्तम, १५८ । २. अवसेसा तस्स खरवट्टा । पञ्चसंग्रह द्वार । ३. अहिंसा शस्य संरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात् सत्यादि व्रतानाम् । हरिभद्रीय अवटक १६।५ ४. द्र० अहिंसा तत्त्वदर्शन, पृ० ३ । ५. आचाराङ्ग ७।१४०० । ६. हिंसाऽनृत स्तेया ब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । तत्वार्थसूत्र ७।१ पृ० १५६ । ७. तत्वार्थसूत्र ७४ । ८. वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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