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शब्द-अद्वैतवाद का समालोचनात्मक विश्लेषण : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 93
अनुमान प्रमाण से भी यह सिद्ध हो जाता है कि पदार्थ शब्दरहित हैं, यथा-. "जो जिस आकार से पराङ मुख ( पृथक् ) होते हैं, वे वास्तव में ( परमार्थ से ) भिन्न ( अतन्मय ) होते हैं, जैसे-जल के आकार से रहित ( विकल ) स्थास, कोश , कुशूलादि वास्तव में तन्मय नहीं हैं, पद, वाक्यादि से भिन्न गिरि, तरु, लतादि वास्तव में शब्दाकार से पराङ मुख हैं।" इस अनुमान से सिद्ध है कि पदार्थ शब्दरहित हैं' । शब्द-अद्वैतवादियों का यह कथन भी तर्कसंगत नहीं है कि जगत् शब्दमय है, इसलिए उसका अन्तर्वी ज्ञान शब्दमय है। ज्ञान में शब्दानुविद्यता ( ज्ञान शब्दमय है ) प्रत्यक्ष एवं अन्मान प्रमाण से सिद्ध नहीं होती, अतः शब्दअद्वं तवादियों की यह मान्यता खण्डित हो जाती है कि ज्ञान शब्दमय है, इसी कारण से वह पदार्थों को प्रकाशित करता है।
शब्दानुविद्धत्व क्या है ? शब्द-अद्वैतवादियों ने ज्ञान को शब्दानुविद्ध माना है। अतः प्रभाचन्द्राचार्य उनसे प्रश्न करते हैं कि शब्दानुविद्धत्व क्या है ?
निम्नांकित दो विकल्पों में से किसी एक विकल्प को शब्दानुविद्धत्व माना जा सकता है...
(क) क्या शब्द का प्रतिभास होना ( जहाँ पदार्थ है, वहाँ शब्द है, ऐसा प्रतिभास
होना ) शब्दानुविद्धत्व है ? (ख) अर्थ और शब्द का तादात्म्य होना ?
उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से किसी भी विकल्प को शब्दानुविद्धत्व मानना दोषविहीन नहीं है, अतः शब्दानुविद्धत्व का स्वरूप ही निश्चित नहीं हो सकता । (क) क्या शब्द का प्रतिभास होना शब्दानुविद्धत्व है
शब्दानुविद्धत्व का यह स्वरूप कि जिस स्थान पर पदार्थ रहते हैं, वहीं पर शब्द रहते हैं-यह मत तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से शब्दरहित पदार्थ की प्रतीति होती है। पदार्थ शब्दानुविद्ध है, ऐसा किसी को कभी भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। प्रत्यक्ष में जिस प्रकार सामने स्थित नीलादि प्रतिभासित नहीं होता। शब्द श्रोता के कर्ण देश में प्रतिभासित होता है। इस प्रकार वाच्य ( पदार्थ ) और वाचक ( शथ्द ) का देश भिन्न-भिन्न होता है । भिन्न देश में उपलब्ध शब्द को अर्थदेश में नही माना जा सकता, अन्यथा अतिप्रसंग नामक दोष आयेगा। अतः अर्थ के अभिन्न देश में शब्द का प्रतिभास होना शब्दानु विद्धत्व नहीं है।
१. वही। २. ननु किमिदं शब्दानुविद्धत्वं नाम–अर्थस्याभिन्नदेशे प्रतिभासः तादात्म्यं वा ?
-प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृष्ठ ४० । ३. तत्राद्य विकल्पोऽसमीचीनः, तद्रहितस्यैवार्थस्याध्यक्षप्रतिभासनात् । -वही ।
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