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Vaishali Institute Reseurch Bulletin No. 6 शाश्वती, व्यापका, दुर्लक्ष्या और काल के भेद से स्पर्शरहित बतलाया है। यह सबके अन्तरंग में प्रकाशित होती है। सूक्ष्मवाणी में सम्पूर्ण जगत् व्याप्त होने से संसार शब्दमय कहलाता है । सूक्ष्मा सम्पूर्ण ज्ञानों में व्याप्त रहती है। इसके बिना पश्यन्ती नहीं हो सकती, पश्यन्ती के बिना मध्यमा और मध्यमा के बिना वैखरी वाणी नहीं हो सकती। इसलिए सूक्ष्मा सभी वाणियों की आद्य जननी कहलाती है । सम्पूर्ण संसार इसी का विवर्त मात्र है। शब्दब्रह्म का स्वरूप - भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में शब्दब्रह्म का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए निम्नांकित विशेषण दिये हैं 3.(क) शब्दब्रह्म अनादिनिधन है
शब्दब्रह्म की पहली विशेषता यह है कि वह उत्पत्ति और विनाश से रहित है। जिसकी न कभी उत्पत्ति होती है और न विनाश, वह अनादिनिधन कहलाता है। शब्दब्रह्म उत्पत्ति एवं विनाशरहित है, इसलिये उसे अनादिनिधन कहा गया है । (ख) शब्दब्रह्म अक्षररूप है
शब्दब्रह्म अक्षररूप है, क्योंकि उसका क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता । दूसरे शब्दों में शब्दब्रह्म कूटस्थ नित्य है। दूसरी बात यह है कि अकारादि अक्षर कहलाते हैं। शब्दब्रह्म इन अकारादि अक्षरों का निमित्त कारण है, इसलिए वह अक्षररूप कहा गया है । अकारादि अक्षरों की उत्पत्ति शब्दब्रह्म के बिना नहीं हो सकती । शब्दब्रह्म के अक्षररूप से यह भी सिद्ध होता है कि वह वाचकरूप है। (ग) शब्दब्रह्म अर्थरूप से परिणमन करता है
शब्द-अद्वै तवादियों ने शब्दब्रह्म का स्वरूप बताते हुए यह भी कहा है कि वह अर्थरूप से विवर्तित होता है। अर्थात्, घट-पटादि जितने भी पदार्थ हैं, वे सब उसी शब्दब्रह्म के पर्याय हैं । घटादि पदार्थों का कारण शब्दब्रह्म है, जो घटादिरूप से प्रतीत होने लगता है। इससे सिद्ध है कि शब्दब्रह्म 'वाच्य' भी है।
१. स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी । तया व्याप्तं जगत्सर्वं ततः शब्दात्मकं जगत् ।।
और भी देखें : स्या० र० पृ० ९० । २. तत्वार्थश्लोकवार्तिक, १/३-श्लोक, ९३-९४, पृ० २४० । ३. (क) अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रियाजगतो यतः ।। भर्तृहरि, वाक्यपदीय, १/१ (ख) प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृ० ३९ । (ग) वादिदेव सूरिः स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृ० ९० । (घ) नाशोत्पादासमालीढं ब्रह्मशब्दमयं परम् ।
यत्तस्य परिणामोऽयं भावग्रामः प्रतीयते ॥ शान्तरक्षितः तत्वसंग्रह, का० १२८
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