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________________ 68 Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 ___मौर्यों के उत्तराधिकारी शुगवंशी पुष्पमित्र ने अपने को कोशलाधीश कहा है । जिसका अर्थ है कि वह उत्तर कोशल का शासक था, जिसकी राजधानी अयोध्या और त्रिपुरी ( जबलपुर ) थी। दक्षिण भारत के शासक सातवाहन नरेशों के जो अभिलेख प्राप्त हुए हैं, गोबर्धन-नासिक जय स्कन्धबार के रूप में उल्लिखित है। गौतमी पुत्र सातकणि के विजय प्रसंग में प्रदेश तथा नदियों के नाम आये हैं। सातकणि सूमकालीन खारवेल ने हाथी गुम्फा अभिलेख में कलिंग नगर का नाम आया है। उड़ीसा के जैनधर्म का प्रवेश शिशुनाग वंशी राजा नन्दवर्द्धन के समय में ही था तथा खारवेल के पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर अर्हन्तों के मन्दिर थे। सम्राट् सम्प्रति के समय में वहाँ वादिवंश का राज्य था। इसी वंश में जैन सम्राट् खारवेल हुआ, जो उस समय का चक्रवर्ती राजा था। उसका एक अभिलेख उड़ीसा के भुवनेश्वर तीर्थ के पास उदयगिरि पर्वत के एक गुफा में खुदा मिला है, जो हाथी गुम्फा के नाम से खुदा प्रसिद्ध है। उसमें प्रतापी राजा खारवेल के जीवन वृतान्तों का वर्णन है । अभिलेख से ज्ञात होता है कि खारवेल ने मगध पर दो बार चढ़ाई को और वहाँ के राजा बहसतिमित्र को पराजित किया । श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने पुष्पमित्र और बहसतिमित्र को एक अनुमान किया है । शुंगवंशी अग्निमित्र के सिक्के के समान ठीक उसी रूप का सिक्का बहसतिमित्र का मिलता है। दक्षिण आन्ध्र वंशी राजा सातकणि खारवेल का समकालीन था। अभिलेख से ज्ञात होता है कि सातकणि की परवाह न कर खारवेल ने दक्षिण में एक बड़ी भारी सेना भेजी, जिसने दक्षिण के कई राज्यों को परास्त किया। सुदूर दक्षिण के पण्डित राजा के यहां से खारवेल के पास बड़े बहुमूल्य उपहार आते थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक समस्त भारत में उसकी विजय पताका फहरायी। खारवेल एक वर्ष विजय के लिए प्रस्थान करता था तो दूसरे वर्ष महल आदि बनवाता, दान देता तथा प्रजा के हित के लिए कार्य करता था। उसने अपनी पैंतीस लाख प्रजा पर अनुग्रह किया था। विजय यात्रा के पश्चात् राजसूर्य यज्ञ किया औद बड़े-बड़े ब्राह्मणों को दान किया। उसने एक बड़ा जैन सम्मेलन बुलाया था, जिसमें भारत भर के जैनपति तपस्वी, ऋषि और पण्डित सम्मिलित हुए थे। जैन संघ ने खारवेल को खेमेराजा, भिक्षुराजा और धर्मराजा की पदवी प्रदान की थी। यह अभिलेख ई० पू० १५०-१०० के लगभग का है। ऐतिहासिकों का मत है कि मौर्यकाल की वंश परम्परा तथा काल गणना की दृष्टि से इसका महत्त्व अशोक के शिलालेखों से भी अधिक है। देश में उपलब्ध अभिलेखों में यही एक ऐसा अभिलेख है, जिसमें वंश तथा वर्ष संख्या का स्पष्ट उल्लेख है। प्राचीनता की दृष्टि से यह अशोक के बाद का अभिलेख माना जाता है। इसमें तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था और राज्य व्यवस्था का सुन्दर चित्रण है । सत्रह पंक्तियों का यह अभिलेख इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से बेजोड़ है । भारतवर्ष का सर्वप्रथम उल्लेख इसी अभिलेख की १० वीं पॅक्ति में भारतवस-भारतवर्ष के रूप में मिलता है। भारत में दानपत्र और ताम्रपत्रों की परम्परा भी प्राचीन काल से चली आ रही है। मौर्यकालीन गया जिले में स्थित बरार पर्वत का गुहालेख दान सबसे प्राचीन उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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