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________________ Vaishali Institute Research Bulletin No. 6 रहते हैं । किन्तु धीरे-धीरे मनुष्य और अन्य जानवरों में अन्तर आता गया, क्योंकि ईश्वर की कृपा से मनुष्य के पास कुछ ऐसी चीजें थीं, जो अन्य जानवरों से उसे अलग कर रही थों । उसके पास एक छोटा-सा मस्तिष्क था, जिसके माध्यम से वह कुछ सोच-विचार कर सकता था। लाखों वर्षों तक उसे हिंसक पशुओं से द्वन्द्व युद्ध करना पड़ा। कभी वे इन्हें मारकर खा जाते, तो कभी ये उन्हें । धीरे-धीरे बुद्धिबल के कारण मनुष्य की ही विजय होती गयी। प्रारम्भ से मनुष्य की अभिव्यक्ति का माध्यम संकेत और जानवरों की तरह चिल्लाना ही था। जिस प्रकार गाय और बैल में" और "बा'' कहकर डकारते-चिल्लाते हैं, उसी तरह आदि मानव भी निल्लाते थे। उनके बच्चे भी माँ-बाप को पुकारने के लिए जानवर की तरह "माँ" "बा" “में” “में” आदि शब्दों का जोर से चिल्लाकर प्रयोग करते थे । प्यास लगने पर "प"-"प" बोलना और भूख लगने पर 'बे" "बे" "बो" "बो" आदि बोलना तथा बोलने से अधिक संकेत करना यही अभिव्यक्ति का माध्यम बना। किसी ध्वनि का वे शीघ्र अनुकरण करते थे और दूसरे को सुनाते थे। इस प्रकार धीरे-धीरे कुछ शब्दों का निर्माण हुआ । वृक्ष से पत्ते गिरने पर “पत्" "पट्' आदि शब्द मुंह से निकाले गये । इस प्रकार किसी भी पत्ते के लिए 'पत्", पत्त या आगे चलकर "पत्र' शब्द का प्रयोग हुआ। उसी प्रकार "सर-सर", "फर-फर", "झर-झर" "टन-टन", "टर-टर" टी-टी आदि ध्वनिसूचक शब्दों का निर्माण हुआ होगा। मनुष्य की उत्पत्ति के लाखों वर्षों के बाद उसे बोलने के लिए टूटी-फूटी भाषा मिल गयी, जिसके माध्यम से वह अपना विचार अभिव्यक्त कर सकता था। इस उपलब्धि की प्राप्ति किए भी आज लाखों वर्ष हो चुके होंगे। सम्पूर्ण ब्रह्मावर्त या आगे चलकर आर्यावर्त की यही स्थिति रही होगी। उक्त भाषा चूकि प्रकृति से ही प्राप्त हुई थी। अतः आगे चलकर वह प्रकृत भाषा कहलायी। जैसे-जैसे समय बीतता गया; अधिक से अधिक शब्दों का निर्माण होता गया, किन्तु उस समय संज्ञा या किया में अधिक अन्तर नहीं था। संज्ञा को ही क्रिया के रूप में प्रयोग कर देते थे। उस समय व्याकरण का भी पता नहीं था। लोग जो कुछ बोलते थे, वही भाषा थी। उस समय साहित्य निर्माण का तो सवाल ही नहीं उठता था । परन्तु हजारों हजार वर्षों के बाद भाषा में धीरे-धीरे अन्तर आने लगा। जनसाधारण की भाषा और ज्ञानवान लोगों की भाषा में अन्तर स्पष्ट दिखलायी देने लगा। जनसाधारण जैसे तैसे बोल लेता था पर सुसभ्य और ज्ञानवान् लोग व्यवस्थित ढंग से बोलते थे। वैसे भी ज्ञानवान् और सुसभ्य लोगों को देव तथा जनसाधारण को जन या मानव कहा जाने लगा था। आतताइयों और दुष्टों को दानव कहा जाता था। आगे चलकर बोलने में भी काफी अन्तर आ जाने के कारण सुसभ्य लोगों की भाषा "देवभाषा" तथा जनसाधारण की भाषा "भानुषी भाषा" कहलाने लगी। पुनः कई हजार वर्षों के बाद ज्ञानवान और सुसभ्य लोगों में भी दो वर्ग बन गये-- जिनमें शारीरिक बल और पौरुष अधिक दिखाई देने लगा, वे शासक बने तथा देवता ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522605
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorL C Jain
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1988
Total Pages312
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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