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Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 पौत्र को सावधान कर दिया कि वे धर्म विजय को ही सच्ची विजय मानें, क्योंकि यह इहलौकिक और पारलौकिक दोनों है।
___इन दोनों धर्मों में रूढ़िवद्ध धार्मिक औपचारिकताओं को छोड़कर सार्थक और उपादेय आचार पक्ष पर जोर देने का एक बहुत बड़ा सामाजिक उद्देश्य है। कुछ धार्मिक औपचारिकताएँ ऐसी हो सकती हैं कि उनमें व्यक्ति के अहंकार को अभिव्यक्ति मिले। ऐसे उपचार अन्यों के लिए ईर्ष्या के कारण बन सकते हैं, ये सर्वसाध्य नहीं भी हो सकते हैं, जैसे दान देता, बहुत बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ करना आदि। इसके विपरीत व्रत और संयम इस अर्थ में सर्वसुलभ हैं कि ये व्ययसाध्य नहीं हैं।
___ औपचारिकताओं का एक दूसरा दोष यह है कि वे दिनानुदिन जटिल होती जाती हैं और अन्ततः धर्म की मूलधारा को आच्छन्न और अवरुद्ध कर देती हैं। इसलिए प्रत्येक उदीयमान धर्म व्यवस्था में रूढिबद्ध औपचारिकताओं के प्रति विद्रोह का भाव रहता है । किन्तु औपचारिकताएँ अमरवेल की तरह होती हैं और कालक्रम से मौका पाकर नवोदित धर्म पर भी छा जाती हैं।
सिद्धान्त पक्ष में श्रमणधर्मों की विशेषता है---अनेकान्त दृष्टि और मध्यमा प्रतिपदा । आज की मिश्र सामाजिक संरचना (Coniposite Social Composition) में इन दोनों सिद्धान्तों की बहुत बड़ी उपादेयता है। प्रतिपक्षी के साथ समवाय स्थापित करने में, विपरीत आदर्शों पर चलने वाले दलों के बीच सह-अस्तित्व और सद्भाव बनाकर रखने में, निजी और सामाजिक जीवन में संतुलन बनाकर रखने में ये सिद्धान्त हमारी मदद कर सकते हैं। इनकी व्यावहारिक परिणति भी अशोक में देखी जा सकती है। राजा एक धर्म विशेष के प्रति व्यक्तिगत रुझान रखता हुआ भी सभी पाषण्डी के प्रवजितों और गृहस्थों का सम्मान करता है । वह चाहता है कि सबों के बीच समवाय रहे। इस समवाय का मूल है 'वचि गुति', वचन का संयम । बेमौके अपने पक्ष की स्तुति और परपक्ष की निंदा नहीं करनी चाहिए। अवसर आने पर परपक्ष का सम्मान भी करना चाहिए। ऐसे आचरण से उभय पक्ष की सारवृद्धि होती है।
कालक्रम से श्रवण धर्म भी रूढ़िग्रस्त होने लगे। अत्यधिक सैद्धान्तिकता और परम्परापरायणता के कारण ये श्लथ और सीमित हो गये । सम्भवतया नियम निर्वाह के आत्यन्तिक आग्रह ने इन्हें सहजता और स्वाभाविकता से दूर कर दिया। फलतः एक प्रतिक्रिया हुई, जिसने धर्माचार को बरबस अन्तरिक्ष से धरती पर खींच लाने का प्रयत्न किया। श्रवण व्यवस्थाएं जिस मद्य, मैथुन, मांस के वर्जन के प्रति अत्यन्त आग्रहशील थीं, सिद्धों ने धर्माचार में उसी का विधान करना प्रारम्भ कर दिया। पुनः मध्यकालीन संतों ने संतुलन बनाये रखने का प्रयास किया। एक ओर जहाँ उन्होंने अहिंसा अव्यभिचार और
१. दशा
द्रष्टव्य---त्रयोदश शिलालेख । २. द्रष्टव्य-द्वादश शिलालेख ।
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