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सत् का लक्षण : अर्थ क्रियाकारित्व
. जैत दार्शनिकों का कहना है कि कि जिस समय वस्तु में जैसी योग्यता होती है उस समय वह वैसी ही अर्थक्रिया करती है । १७ प्रश्न उठता है योग्यता से हम क्या समझें ?
जैन दार्शनिकों का कहना है कि ना तो केवल द्रव्य ही कार्यकारी होता है ना पर्याय मात्र | बल्कि विशिष्ट पर्याय से परिणत द्रव्य ही कार्यकारी होता है ।" उदाहरण के लिए यह सारा दृश्य मान जगत् पुद्गल परमाणुओं की स्कन्धरूप अवस्थाएँ है । लेकिन हर परमाणु, हर समय किसी भी रूप में परिणत हो जाये ऐसा नहीं है । मिट्टी भी पुद्गल से परमाणुओं ने मिलकर बनी है और तन्तु भी मुद्गल परमाणुओं से मिलकर बने है । लेकिन घट मिट्टी से ही बन सकता है और पट तन्तुओं से ही । घट, तन्तुओं से नहीं बन सकता और पट मिट्टी से नहीं बन सकता । प्रत्येक पुद्गल परमाणु में समान सामर्थ्य बाले समान संख्यक गुण होते हैं । अतः यह तो कहा नहीं जा सकता कि मिट्टी के परमाणु कुछ दूसरे प्रकार के हैं और तन्तुओं के परमाणु कुछ दूसरे प्रकार के हैं । परन्तु फिर भी मिट्टी रूप से परिणत परमाणुओं में ऐसी पर्यायगत योग्यता नहीं कि उससे यह उत्पन्न हो सके । जब तक मिट्टी के परमाणु खाद-पानी आदि के माध्यम से तन्तु रूप में परिणत नहीं हो पाते उनसे पट की उत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः पर्यायशक्ति युक्त द्रव्य अर्थक्रियाकारी होता है । मिट्टी से घड़ा भी बनता है, सुराही आदि दूसरी चीजें भी बनती हैं । तब किसी मिट्टी से घड़ा बनेगा, किससे अन्य चीजें इस बात का नियमन कैसे होता है ? नैयायिकों का कहना है कि जैसी कुम्हार की इच्छा व प्रयत्न आदि निमित्तकारण होते हैं, मिट्टी में वैसा कार्य उत्पन्न होता है । यह कारण कार्य की पुरुषपरक ( anthropomorphic) व्याख्या है ।
नैयायिक प्रत्येक सत् को परिणमनशील नहीं मानते, इसलिए मानना पड़ता है । लेकिन जैन दर्शन के अनुसार सत् परिणमनशील है । परिणमाने के लिए दूसरे द्रव्य की आवश्यकता मानी जाय तो उसे तीसरे द्रव्य की आवश्यकता माननीय पड़ेगी और फिर इस तरह हो जाता है ।
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अतः प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील होने से, वह स्वयं अपने कार्यों का पर्यायों का नियामक होता है । कार्य उपादान कारण और निमित्त कारणों की समग्रता में होता है । १९ इसे जैन दार्शनिक स्वीकार करते हैं । परन्तु जैनों का कहना है कि हम ऐसा नहीं कह सकते कि निमित्त कारणों के नहीं होने से वस्तु ( उपादान) में कार्य नहीं हुआ । परिणाम रहित वस्तु कभी नहीं होती, अतः वस्तु में तब भी कोई न कोई कार्य अवश्य हुआ
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उन्हें ईश्वर को यदि एक द्रव्य को
परिणमाने के लिए
अनवस्था दोष उत्पन्न
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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा, भाग १, पृ० ४७ पर प्रमेयकमलमार्तण्ड का उद्धरण । प्र० टोडरमलस्मारक ट्रस्ट जयपुर ।
वही तत्वचर्चा, भाग २, पृ० ३८५ पर प्रमेयकमलमार्तण्ड का उद्धरण । स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ६० । इसे वहाँ, आचार्य समन्तभद्र ने द्रव्यगत स्वभाव कहा है ।
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