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जैन दर्शन में आत्मा और पुनर्जन्म
137 की ओर आकृष्ट होते हैं। आत्मा की ओर आकृष्ट होनेवाली ये पुद्गल कर्मवर्गणाएँ पूर्वबद्ध पुद्गल कर्मों से बन्ध. करती हैं और बन्ध जिस प्रकृति एवं स्थिति का होता है, उसके अनुरूप ही ये कर्मवर्गणाएँ आत्मा से पृथक् होते हुए भी कर्म फल प्रदान करती हैं। यह कर्म-फल सुख अथवा दुःखानुभूति रूप होता है। आत्मा स्वचतुष्टय (द्रव्य-क्षेत्र काल एवं भाव) में दो प्रकार से परिणमन कर सकता है- (१) स्वभाव परिणमन (२) विभाव परिणमन ।
आत्मा का विभाव परिणमन भी दो प्रकार का होता है-शुभभाव परिणमन एवं अशुभभाव परिणमन । शुभभाव परिणमन से शुभकर्मों का बन्ध होता है जो पुण्योदयकारी है। इसके फलस्वरूप ही सांसारिक सुख, सुविधाएँ, ऐश्वर्य तथा देव मनुष्य जैसी श्रेष्ठ गतियाँ प्राप्त होती हैं। अशुभभाव परिणमन से अशुभकर्मों का बन्ध होता है जो पापोदयकारी है जिसके फलस्वरूप विविध प्रकार के सांसारिक दुःख, कष्ट एवं क्लेश तथा नरक, तिर्यञ्च आदि गतियाँ प्राप्त होती हैं।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आत्मा अपने एक पर्याय में अपने द्वारा सम्पन्न कर्मो के आधार पर आगामी पर्याय का स्वरूप एवं अवधि सुनिश्चित करती है । इस प्रकार संसारी आत्मा द्वारा एक पर्याय का परित्याग कर दूसरे पर्यायों को ग्रहण करना मृत्यु के पश्चात् जन्म अथवा पुनर्जन्म कहलाता है ।
जनेतर ईश्वरवादी दर्शनों में पुनर्जन्म में प्राप्त होनेवाली कुछ गति का निर्धारण ईश्वर या परमात्मा करता है। वही इस सृष्टि का कर्ता है और अपने मनोविलास हेतु विभिन्न प्राणियों को उत्पन्न एवं नष्ट करता है। यह उसकी क्रीड़ा है और पुनर्जन्म उसके फल हैं । जैनदर्शन इस प्रकार की किसी मान्यता को स्वीकार नहीं करता। जैनदर्शन में सृष्टि-कर्ता के रूप में ईश्वर अथवा परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। जैनदर्शन विशुद्ध आत्मा को ही सम्प्रभू, स्वयंभू, सर्वशक्ति-सम्पन्न तथा सर्वज्ञ मानता है । कोई भी आत्मा किसी परपदार्थ का न तो कर्त्ता है न भोक्ता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब आत्मा पर का कर्ता नहीं है तो जड़ कर्मों को किस प्रकार करता है और यदि कर्म उसके नहीं हैं, पुद्गल के हैं तो वह पर की चेष्टा का भोक्ता किस प्रकार हुआ? इसका स्पष्टीकरण जैनदर्शन में इस प्रकार दिया गया है कि आत्मा के अभाव में पुद्गल के कर्मबन्धन हो नहीं सकते। अतः आत्मा में उत्पन्न हुए विमोक्ष के अनुरूप विविध प्रकार के कर्मों का बन्ध भाव कर्म की अपेक्षा से आत्मा का कहलाता है एवं द्रव्यकर्म की अपेक्षा से पुद्गल का कहलाता है । भाव की दृष्टि से क्रोधादि परिणाम पुद्गल के नहीं हैं, आत्मा के ही हैं। इसी से आत्मा अपने परिणमन के फल का भोक्ता है । वह अपना स्रष्टा स्वयं है और उसे अपनी सृष्टि हेतु ईश्वर अथवा परमात्मा जैसी किसी अवान्तर सत्ता की अपेक्षा नहीं है। वह तो अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावरूप चतुष्टय में रमण करता है। आत्मा को देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति अथवा
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