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________________ ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्न : जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 133 ७, इच्छानुकूलिका किसी कार्य में अपनी अनुमति देना अथवा किसी कार्य के प्रति अपनी पसन्दगी स्पष्ट करना इच्छानुकूलिका भाष' है । तुम्हें यह कार्य करना ही चाहिए, इस प्रकार के कार्य को मैं पसन्द करता हूं। मुझे झूठ बोलना पसन्द नहीं है। आदि । आधुनिक नीतिशास्त्र का संवेगवादी सिद्धान्त भी नैतिक कथनों को अभिरुचि या पसन्दगी का ही एक रूप बताता है, उसे सत्यापनीय नहीं मानता है। ८. अनभिग्रहीता ऐसा कथन जिसमें वक्ता अपनी न तो सहमति प्रदान करता है और न असहमति, अनभिग्रहीता कहलाता है। जैसे, "जो पसन्द हो, वह कार्य करो", "जो तुम्हें सुखप्रद हो, वैसा करो" आदि। ऐसे कथन भी सत्यापनीय नहीं होते। इसलिए इन्हें भी असत्य-अमृषा कहा गया है। ९. अभिग्रहीता किसी दूसरे व्यक्ति के कथन को अनुमोदित करना अभिग्रहीता कथन है । जैसे'हाँ, तुम्हें ऐसा ही करना चाहिए', ऐसे कथन भी सत्य-असत्य की कोटि में नहीं आते हैं। १०. संदेह कारिणी जो कथन द्वयर्थक हों या जिनका अर्थ स्पष्ट न हो, संदेहात्मक कहे जाते हैं। जैसे, सैन्धव अच्छा होता है। यहाँ वक्ता का यह तात्पर्य स्पष्ट नहीं है कि सैन्धव से नमक अभिप्रेत है या सिन्धु देश का घोड़ा । अतः ऐसे कथनों को भी न सत्य कहा जा सकता है और न असत्य । ११. व्याकृता ___ व्याकृता से जैन विचारकों को क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं होता है। हमारी दृष्टि में व्याकृत का अर्थ परिभाषित करना ऐसा हो सकता है। वे कथन जो किसी तथ्य की परिभाषाए है, इस कोटि में आते हैं। आधुनिक भाषावादी विश्लेषक दार्शनिकों की दृष्टि से कहें तो वे पुनरुक्तियाँ हैं। जैन विचारकों ने इन्हें भी सत्य या असत्य की कोटि में नहीं रखा है, क्योंकि इनका कोई अपना विधेय नहीं होता है या ये कोई नवीन कथन नहीं करते हैं। १२. अव्याकृत वह भाषा जो स्पष्ट रूप से कोई विधि निषेध नहीं करती है, अव्याकृत कही जाती है। जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि लोक शाश्वत् है या अशाश्वत् । अव्याकृत भाषा भी स्पष्ट रूप से विधि-निषेध को अभिव्यक्त नहीं करती है । इसलिए वह भी सत्यअसत्य की कोटि में नहीं आती है। आज समकालीन दार्शनिकों ने भी आमंत्रणी, आज्ञापनीय, याचनीय, प्रवचनीय और प्रज्ञापनीय आदि कथनों को असत्य-अमृषा (असत्यापनीय) माना है। एयर आदि ने नैतिक प्रकथनों को आज्ञापनीय मानकर उन्हें असत्यापनीय कहा है, जो जैन दर्शन की उपर्युक्त व्याख्या के साथ संगतिपूण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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