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ज्ञान और कथन की सत्यता का प्रश्न : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
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है, क्योंकि वह ज्ञेय अर्थात् “पर” पर निर्भर है। अतः ज्ञान की सत्यता की उत्पत्ति या कसौटी को परतः ही माना गया है। जहाँ तक कथन की सत्यता का प्रश्न है, वह ज्ञान की सत्यता से भिन्न है। कथन की सत्यता का प्रश्न
यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि मानव अपनी अनुभूतियों और भावनाओं को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। भाषा शब्द प्रतीकों और सार्थक ध्वनि संकेतों का एक सुव्यवस्थित रूप है। वस्तुतः हमने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के लिए शब्द प्रतीक बना लिये है। इन्हीं शब्द प्रतीकों एवं ध्वनि संकेतों के माध्यम से हम अपने विचारों, अनुभूतियों और भावनाओं का सम्प्रेषण करते हैं ।
यहाँ मूल प्रश्न यह है कि हमारी इस भाषायी अभिव्यक्ति को हम किस सीमा तक सत्यता को अनुसांगिक मान सकते हैं। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में भाषा और उसकी सत्यता के प्रश्न को लेकर एक पूरा दार्शनिक सम्प्रदाय ही बन गया है। भाषा और सत्य का सम्बन्ध आज के युग का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्न है। किसी कथन की सत्यता या असत्यता को निर्धारित करने का आधार आज सत्यापन का सिद्धान्त है। समकालीन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि जिन कथनों का सत्यापन या मिथ्यापन संभव है, वे ही कथन सत्य या असत्य हो सकते हैं। शेष कथनों का सत्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है। ए. जे० एजर ने अपनी पुस्तक में इस समस्या को उठाया है। इस सन्दर्भ में सबसे पहले हमें इस बात का विचार कर लेना होगा कि कथन के सत्यापन से हमारा क्या तात्पर्य है। कोई भी कथन जब इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या अपुष्ट किया जा सकता है, तब ही वह सत्यापनीय कहलाता है। जिन कथनों को हम इन्द्रियानुभव के आधार पर पुष्ट या खण्डित नहीं कर सकते, वे असत्यावनीय होते हैं। किन्तु, इन दोनों प्रकार के कथनों के बीच कुछ ऐसे भी कथन होते हैं जो न सत्यापनीय होते हैं और असत्यापनीय । उदाहरण के लिए मंगल ग्रह में जीव के पाये जाने की संभावना है। यद्यपि यह कथन वर्तमान में सत्यापनीय नहीं है, किन्तु यह संभव है कि इसे भविष्य में पुष्ट या खण्डित किया जा सकता है। अतः वर्तमान में यह न तो सत्यापनीय है और न तो असत्यापनीय । किन्तु, संभावना की दृष्टि से इसे सत्यापनीय माना जा सकता है। भगवती आराधना में सत्य का एक रूप संभावना सत्य माना गया है।
वस्तुतः कौन-सा कथन सत्य है, इसका निर्णय इसी बात पर निर्भर करता है कि उसका सत्यापन या मिथ्यापन संभव है या नहीं है। वस्तुत: जिसे हम सत्यापन या मिथ्यापन कहते हैं, वह भी उस अभिकथन और उसमें वणित तथ्य की संवादिता या अनुरूपता पर निर्भर करता है, जिसे जैन परम्परा में परतः प्रमाण्य कहा जाता है । सामान्यतया यह माना जाता है कि कोई भी कथन कथित तथ्य का संवादी (अनुरूप) होगा तो वह सत्य होगा और विसंवादी (विपरीत) होगा तो वह असत्य होगा। यद्यपि, वह भी स्पष्ट
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