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________________ 124 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 (३-४१, पुस्तक ) इस सूत्र में तथा इसके पूर्ववर्ती सूत्र १ का निर्देश है । अतः उस षट्खण्डागम के इन दो सूत्रों के उल्लिखित (६-२४) सूत्र में १६ की संख्या का निर्देश आवश्यक है । उसकी अनुवृत्ति वहाँ से सुतरा हो जाती है । सिद्धभक्ति आदि अधिक ४ बातें दिगम्बर परम्परा में स्वीकृत हैं या नहीं, यह अलग प्रश्न है । किन्तु यह सत्य है कि वे तीर्थंकर प्रकृति की अलग बन्ध कारण नहीं मानी गयीं । सिद्धभक्ति कर्मध्वंस का कारण है तब वह कर्मबन्ध का कारण कैसे हो सकती है । इसी से उसे तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्धकारणों में सम्मिलित नहीं किया । अन्य तीन बातों में स्थविर भक्ति और तपस्वि वात्सल्य का आचार्य भक्ति एवं साधुसमाधि में तथा अपूर्वज्ञान ग्रहण का अभीक्ष्ण- ज्ञानोपयोग में समावेश कर लेने से उन्हें पृथक् निरुपण करने की आवश्यकता नहीं है । हमने अपने उक्त निबन्ध में दिगम्बरत्व की तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री परीषह और दंशभशक इन दो श्रुत के अनुकूल हैं । उसकी अचेल श्रुत के आधार से तरह पुरुष परीषह का भी उसमें प्रतिपादन होता, दोनों को मोक्ष स्वीकार किया गया है तथा दोनों एक दूसरे के सकते हैं । कोई कारण नहीं कि स्त्री परीषह तो अभिहित हो और न हो, क्योंकि सचेल श्रुत के अनुसार दोनों में मुक्ति के प्रति कोई दिगम्बर श्रुत के अनुसार पुरुष में वज्रवृषभनाराच संहननत्रय हैं, कारण हैं । परन्तु स्त्री के उनका अभाव होने से मुक्ति संभव नहीं है और इसी से तत्त्वार्थसूत्र में स्त्री परीषह का प्रतिपादन है, पुरुष परीषह का नहीं । इस प्रकार दंशमशक परीषह सचेल साधु को नहीं हो सकती-नग्न- दिगम्बर- पूर्णतया अचेत साधु को ही सम्भव है । समर्थक एक बात यह भी कही है कि परीषहों का प्रतिपादन है, जो अचेल रचना मानने पर इन दो परीषहों क क्योंकि सचेल श्रुत में स्त्री और पुरुष मोक्ष में उपद्रवकारी हो पुरुष परीषह अभिहित वैषम्य नहीं । किन्तु जो मुक्ति में सहकारी उक्त विद्वान ने इन दोनों बातों की भी समीक्षा करते हुए यह प्रश्न उठाया है कि 'जो ग्रन्थ इन दो परीषहों का उल्लेख करता हो, वह दिगम्बर परम्परा का होगा, यह कहना भी उचित नहीं है । फिर तो उन्हें सभी श्वेताम्बर आचार्यों एवं ग्रन्थों को दिगम्बर परम्परा का मान लेना होगा, क्योंकि उक्त दोनों परीषहों का उल्लेख तो सभी श्वेताम्बर ५०. (३-४०) में भी १६ की संख्या आधार से रचे तत्त्वार्थसूत्र के ५१. Jain Education International दसणविसुज्झदा विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासए सु अपरिहीणदाए खणलवबुज्झणदाए लद्धिसंवेग संपण्णदाए जधाथामे तधातवे साहूणं पासुअपरिचाणदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूण वेज्जाजच्च जोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति || ४१॥ तत्थ इमे हि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्मं बंधति ||४०|| इन दोनों सूत्रों में १६ की संख्याका स्पष्ट निर्देश है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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