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________________ 116 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 है ।२६ प्रथम आक्षेप का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि 'जो विज्ञप्तिमात्र को जानता है और लोकानुरोध से बाह्य-पर को भी स्वीकार करता है और फिर भी सबको शून्य कहता है तथा प्रतिपादन करता है कि न ज्ञाता है, न उसमें फल है और न कुछ अन्य जाना जाता है, ऐसा अश्लील, आकुल और अयुक्त प्रलाप करता है उसे प्रमत्त (पागल), जडबुद्धि और विविध आकुलताओं से घिरा हुआ समझना चाहिए ।' समन्तभद्र पर किये गये धर्मकीर्ति के प्रथम आक्षेप का 'यह जवाब जैसे को तैसा' नीति का पूर्णतया परिचायक है। धर्मकीति के दूसरे आक्षेप का भी उत्तर अकलंक उपहास पूर्वक देते हुए कहते हैं कि 'जो दही और ऊंट में अभेद का प्रसंग देकर सभी पदार्थों को एक हो जाने की आपत्ति प्रकट करता है और इस तरह स्याद्वाद-अनेकान्तवाद का खण्डन करता है, वह पूर्व पक्ष (अनेकान्तवाद-स्थाद्वाद) को न समझ कर दूषण देने वाला होकर भी विदूषक-दूषक नहीं है, जोकर है । सुगत भी कभी मृग था और मृग भी सुगत हुआ माना जाता है । तथापि सुगत को वन्दनीय और मृग को भक्षणीय कहा गया है और इस तरह पर्याय भेद से सुगत और मृग में वन्दनीय एवं भक्षणीय की भेदव्यवस्था तथा चित्तसन्तान की अपेक्षा से उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार प्रतीति बल से-पर्याय और द्रव्य की प्रतीति से सभी पदार्थों में भेद और अभेद दोनों की व्यवस्था है। अत: 'दही खा' कहे जाने पर कोई ऊँट को खाने के लिए क्यों दौड़ेगा, क्योंकि सत्-द्रव्य की अपेक्षा से उनमें अभेद होने पर भी पर्याय की दृष्टि से उनमें उसी प्रकार भेद है जिस प्रकार सुगत और मृग में है। अत एव 'दही खा' कहने पर कोई दही खाने के लिए दौड़ेगा, क्योंकि वह भक्षणीय है और ऊँट खाने के लिए वह नहीं दौड़ेगा, क्योंकि वह अभक्षणीय है । इस तरह विश्व की सभी वस्तुओं को उभयात्मक-अनेकान्तात्मक मानने में कौन-सी आपत्ति या विपत्ति है, अर्थात् कोई आपत्ति या विपत्ति नहीं है। ___ अकलंक के इन सन्तुलित एवं सवल जवाबों से बिलकुल असन्दिग्ध है कि समन्तभद्र की आप्तमीमांसागत स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की मान्यताओं का ही धर्मकीर्ति ने २६. (क) ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्र परमपि च बहिर्भासि भाववादम्, चक्रे लोकानुरोधात् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे । न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किंचित्, इत्यश्लील प्रमत्तः प्रलपति जडधीराकुलव्याकुलाप्तः ।। -न्या. वि. २-१६१ । (ख) दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसगादेकचोदनम् । पूर्वपक्षम विज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः ।। सुगतोऽपि मृगोजातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः । तथापि सुगतो वंद्यो मृग: खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तुवलादेव भेदाभेदध्यवस्थितेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ।। ---न्या. वि.३-३७३,३७४ । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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