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________________ 114 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 प्रकार विश्व की सभी वस्तुएँ त्रयात्मक हैं। दूसरी (६० वीं) कारिका के द्वारा बतलाया है कि जैसे दुग्धव्रती, दूध ही ग्रहण करता है, दही नहीं लेता और दही का व्रत रखने वाला दही ही लेता है, दूध नहीं लेता है तथा दूध और दही दोनों का त्यागी दोनों को ही ग्रहण नहीं करता और इस तरह गोरस उत्पाद, व्यय और ध्रुवता तीनों से युक्त है, उसी तरह अखिल विश्व (तत्त्व) त्रयात्मक है। कुमारिल ने भी समन्तभद्र की लौकिक उदाहरण वाली कारिका (५९) के आधार पर नयी ढाई कारिकाएँ रची हैं और समन्तभद्र की ही तरह उनके द्वारा वस्तु को त्रयात्मक सिद्ध किया है । १८ उनकी इन कारिकाओं में समन्तभद्र की कारिका ५९ का केवल विम्बप्रतिविम्बिभाव ही नहीं है, अपितु उनकी शब्दावली, शैली और विचारसरणि भी उनमें समाहित है। समन्तभद्र ने जिस बात को अतिसंक्षेप में एक कारिका (५९) में कहा है उसी को कुमारिल ने ढाई कारिकाओं में प्रतिपादन किया है। वस्तुतः विकास का भी यही नियम है कि वह उत्तरकाल में विस्तृत होता है। इस उल्लेख से भी जाना जाना जाता है कि समन्तभद्र पूर्ववर्ती हैं और कुमारिल परवर्ती । ___ इसका भी ज्वलन्त प्रमाण यह है कि ई० १०२५ के प्रसिद्ध प्रतिष्ठित और प्रामाणिक तर्क ग्रन्थकार वादिराज सूरि१९ ने अपने न्याय विनिश्चय विवरण (भान १, ” पृ० ४३९) में समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की उल्लिखित कारिका ५९ को और कुमारिल भट्ट की उपरिचचित ढाई का रिकाओं में से डेढ़ का रिका को भी 'उक्तं स्वामिसमन्तभद्रैस्तदुपजोविना भट्टेनापि' शब्दों के साथ उद्धृत किया है और 'तदुपजीविना भट्टेनापि' शब्दों को देकर कुमारिल भट्ट को समन्तभद्र का उपजीवी-अनुगामी प्रकट किया है। इस 'दिगकर प्रकाश' जैसे स्पष्ट उल्लेख से प्रकट है कि एक हजार वर्ष पहले भी दार्शनिक एवं साहित्यकार समन्तभद्र को पूर्ववर्ती और कुमारिल भट्ट को परवर्ती विद्वान् मानते थे। ४. अब धर्मकीति को लीजिये। धर्मकीर्ति (ई० ६३५) ने भी समन्तभद्र की आप्तमीमांसा का खण्डन किया है ।२० विदित है कि आप्तमीमांसा (का० १०४) में समन्तभद्र ने स्याद्वाद का लक्षण दिया है२१ और लिखा है कि 'सर्वथा एकान्त के त्याग से जो 'किंचित्' वर्धमानकभङ्ग च रुचकः क्रियते यदा । तदा पूर्वाथिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमाथिनस्त माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशे न विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ।। स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्थता । ---मी० श्लो० वा०, पृ० ६१९ । "उक्तं स्वामिसमन्तभद्र स्तदुपजीविना भट्टनापि"-आगे समन्तभद्र की पूर्वोल्लिखित कारिका ५९ और कुमारिल भट्र की उपर्यक्त कारिकाओं में से आरम्भ की डेढ़ कारिका उद्धृत है ।-न्या० वि० वि० भाग १, पृ० ४३९ । एतेनैव यत्किचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम् । प्रलयन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसंभवात् ॥-प्रमाणवा० १-१८२ । २१. स्याद्वाद: सर्वथैकान्त त्यागात्किवृत्तचिद्विधः ।। सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ।।-आ० का० १०४ । १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
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