SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 112 Vaishali Institute Research Bulletin No. 4 सर्वज्ञ की सिद्धि कैसे की जा सकती है।' इसका सबल उत्तर समन्तभद्र की आप्तमीमांसा के विवृत्तिकार अकलंक देव ने१० दिया है। अकलंक कहते हैं कि 'प्रमेयत्व आदि तो 'अनुमेयत्व' हेतु के पोषक हैं११-अनुमेयत्व हेतु की तरह प्रमेयत्व आदि सर्वज्ञ के सद्भाव के साधक हैं, तब कौन समझदार उन हेतुओं से सर्वज्ञ का निषेध या उसके सद्भाव में सन्देह कर सकता है ?' ___ यह सारी स्थिति बतलाती है कि कुमारिल ने समन्तभद्र का खण्डन किया है, समन्तभद्र ने कुमारिलका नहीं। यदि समन्तभद्र कुमारिल के परवर्ती होते तो कुमारिल के खण्डन का उत्तर स्वयं समन्तभद्र देते, अकलंक को उनका जवाब देने का अवसर नहीं आता तथा समन्तभद्र के 'अनुमेयत्व' हेतु का समर्थन करने का भी मौका उन्हें नहीं मिलता । २. अनुमान से सर्वज्ञ सामान्य की सिद्धि करने के उपरान्त समन्तभद्र ने अनुमान से ही सर्वज्ञ विशेष की सिद्धि का उपन्यास करके उसे 'अर्हन्त' में पर्यवसित किया है१२, जैसा कि हम ऊपर आप्तमीमांसा कारिका ६ और ७ के द्वारा देख चुके हैं। कुमारिल ने समन्तभद्र की इस विशेष सर्वज्ञता की सिद्धि का भी खण्डन किया है । १3 अर्हन्त का नाम लिये बिना वे कहते हैं कि जो लोग जीव (अर्हन्त) के इन्द्रिया द्वि निरपेक्ष एवं सूक्ष्मादि विषयक केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) की कल्पना करते हैं, वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि वह आगम के बिना, और आगम, केवल ज्ञान के बिना, सम्भव नहीं है और इस तरह अन्योन्याश्रय दोष होने के कारण अर्हन्त जिनमें भी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती। ज्ञातव्य है कि जैन अथवा जैनेतर परम्परा में समन्तभद्र से पूर्व किसी दार्शनिक ने अनुमान से उक्त प्रकार विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की हो, ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं होता। हाँ, आगमों में केवल ज्ञान का. स्वरूप अवश्य विस्तारपूर्वक मिलता है, जो आगमिक है, आनुमानिक नहीं है । समन्तभद्र ही ऐसे दार्शनिक हैं, जिन्होंने अरहन्त में अनुमान से सर्वज्ञता (केवल शान) की सिद्धि की है और उसे दोषावरणों से रहित, इन्दियादि निरपेक्ष तथा सूक्ष्मादि विषयक बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि कुमारिल ने समन्तभद्र की १०. 'तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषेधुमर्हति संशयितुं वा ।'-अष्टश० का० ५। ११. अकलंक के उत्तरवर्ती बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित ने भी कुमारिल के खण्डन का जवाब दिया है । उन्होंने लिखा हैएवं यस्य प्रमेयत्ववस्तु सत्त्वादिलक्षणाः । निहन्तुं हेतवोऽशक्ताः को न तं कल्पयिष्यति ।-तत्त्वसं० का० ८८५ । १२. आप्तमी० का० ६, ७, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट-प्रकाशन, वाराणसी, द्वि० सं०, १९७८। १३. एवं यः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादि विषयं जीवस्य परिकल्पितम् ।। नर्ते तदागमात्सिद्धयेत् न च तेनागमो विना ।-मीमांसा श्लो० ८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522604
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1983
Total Pages288
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy