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जैन शास्त्र के कुछ विवादास्पद पक्ष
___डा० दरबारोलाल कोठिया, न्यायाचार्य कुछ विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया है कि 'समन्तभद्र की आप्तमीमांसा आदि कृतियों में कुमारिल धर्मकीति आदि की मान्यताओं का खण्डन होने से उसके आधार पर समन्त भद्रको ही उनका परवर्ती क्यों न माना जाये ?'
हमने 'कुमारिल और समन्तभद्र' शीर्षक' शोध-निबन्ध में सप्रमाण यह प्रकट किया है कि समन्तभद्र की कृतियों (विशेषतया आप्तमीमांसा) का खण्डन कुमारिल और धर्मकीति के ग्रन्थों में पाया जाता है । अतएव समन्तभद्र उक्त दोनों ग्रन्थकारों से पूर्ववर्ती हैं, परवर्ती नहीं। समन्तभद्रकी जिन आप्तमीमांसागत मान्यताओं का खण्डन उक्त दोनों ग्रन्थकारों ने किया है, उसके कुछ उदाहरण पुनः विचारार्थ उपस्थित किये जाते हैं।
१. जैनागमों तथा कुन्दकुन्द के प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में सर्वज्ञ का स्वरूप तो दिया गया है। परन्तु अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि उनमें उपलब्ध नहीं होती। जैन दार्शनिकों में ही नहीं, भारतीय दार्शनिकों में भी समन्तभद्र ही ऐसे प्रथम दार्शनिक एवं तार्किक हैं, जिन्होंने आप्तमीमासा (का ३, ४, ५, ६, ७) में अनुमान से सामान्य तथा विशेष सर्वज्ञकी सिद्धि की है। १. अनेकान्त, वर्ष ५, किरण १२, ई० १९४५; जैनदर्शन और प्रमाण शास्त्र
परि० पृ० ५३८ वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी-५, जून १९८० । २. (क) सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्स दि"।
षटखं० ५।५।९८ । (ख) से भगवं अरिहं जिणो केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी."सव्वलोए
__सव्वजीवाणं सव्वं भावाइं जाणमाणे"। आचारां सू० २-३ । . प्रवच० सा०, १।४७, ४८, ४९; कुन्दकुन्द भारती, १९७० । तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरुः ॥ ३ ॥ दोषावरणयोर्हा निनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥ ४ ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ-संस्थितिः ।। ५ ॥ स त्वमेवासि निर्दोषो मुक्तिशास्त्रविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥ ७ ॥
समन्तभद्र, आप्तमी० ३, ४, ५, ६, ७ ।
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